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भगवान महावीर
३१२ निमित्त भूत होते हैं, उन्ही को हिसा कहते हैं। और वाह्य दृष्टि से हिंसा मालूम होने पर भी जिसके अन्तर्परिणाम शुद्ध रहते हैं वह हिंसा नहीं कहलाती। धर्मरत्न मंजूपा में कहा है किजंन हु भणि भो बंधो जीवरस बहेवि समिइ गुन्ताणं भावो तत्थ पमाणं न पमाणं काय वा वारी। '
अर्थात् समिति गुप्त युक्त महावृत्तियो से किसी जीव का वध हो जाने पर भी उन्हें उसका वन्ध नहीं होता, क्योकि बन्ध में मानसिक भाव ही कारण भूत होते हैं। कायिक व्यापार नहीं।
इससे विपरीत जिसका मन शुद्ध अथवा संयत नहीं है, जो विषय तथा कषाय से लिप्त है वह वाह्य स्वरूप में अहिसक दिखाई देने पर भी हिंसक ही है । उसके लिए स्पष्ट कहा गया है कि:___ "अहणं तो विहिंसों दुदरण ओमओ अहिम रोव"
जिसका मन दुष्ट भावों से भरा हुआ है वह यदि कायिक रूप से किसी को न भी मारता है, तो भी हिसक ही है। यही जैन-धर्म की अहिंसा का संक्षिप्त स्वरूप है।
जैन-अहिंसा और मनुष्य-प्रकृति अव इस स्थान पर हम जैन-अहिंसा पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी कुछ विचार करना आवश्यक समझते हैं। क्योकि कोई भी सिद्धान्त या तत्त्व तब तक मनुष्य समाज मे समष्टिगत नहीं
हो सकता जब तक कि उसका मनस्तत्व अथवा मनोविज्ञान से . घनिष्ट सम्बन्ध न हो जाय ।
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