SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 295
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३११ भगवान् महावीर होती हैं और इन्ही प्रवृत्तियो के द्वारा मन का रूप प्रकट होता है। इस प्रकार तमाम कमों के अन्तर्गत मन की ही प्रधानता रहती है। इस कारण आत्मिक विकास में सब से प्रथम मन को शुद्ध और सयन बनाने को आवश्यकता है। जिसका मन इस प्रकार शुद्ध और संयत बन गया है, यद्यपि वह जब तक देह वारण करता है तब तक कर्मों से अलग नहीं रह सकता, तथापि उनम्न निर्लिप्त अवश्य रहता है। गोता मे कहा है कि "नाहि देहन्द्रता शक्यं त्यक्तुं कर्मण्य शेपत योग युक्तो भूतात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः सर्व भूतात्म भूतारमा कुर्वन्नपि न लिप्यते । गीता के इस कथनानुसार जो योगयुक्त विशुद्धात्मा, जितेन्द्रिय और सब जीवो में आत्म-बुद्धि रखने वाला पुरुष है वह कर्म करता हुआ भी उससे निर्लिप्त रहता है। उपरोक्त सिद्धान्त से यह वात स्पष्ट होजाती है कि जो सर्व व्रती और पूर्ण त्यागी मनुष्य है, उससे यदि सूक्ष्म कायिक हिंसा होती भी है तो वह उसके फल का भोक्ता नहीं हो सकता। क्योंकि उससे होनेवाली उस हिंसा में उसके भाव रंच-मात्र भी अशुद्ध नहीं होने पाते और हिंसक भावो से रहित होनेवाली हिंसा हिंसा नही कहलाती । “पावश्यक महाभाष्य" नामक जैन प्रन्थ में कहा है कि__ "मसुम परिणाम हेट जीवा वाहो तितो मयं हिंसा जस्स उन सो निमित्तं संतो विन तस्स सा हिंसा ।" अर्थात् किसी जीव को कष्ट पहुंचाने में जो अशुभ परिणाम
SR No.010171
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherMahavir Granth Prakashan Bhanpura
Publication Year
Total Pages435
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy