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भगवान् महावीर
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प्रभुने जिस उत्कृष्ट चरित्र का पालन किया वह चरित्र चाहे जिस आत्मा को मुक्त करने में समर्थ हो सकता था ।
हिमालय के समान निश्चल परिणामी, सागर के समान गम्भीर, सिंह के समान निर्भय, आकाश की तरह उन्मुक्त, कच्छप की तरह इन्द्रियो को गुप्त रखने वाले, मोह से अजेय, सुख और दुख में सम भावी, जल में स्थित कमल की तरह, संसार के कीचड़ में विचरण करते हुए भी पवित्र असंखलित गतिवाले, भगवान महावीर अपने कर्मों की निर्जरा करते हुए विचरस करने लगे ।
गुवाले की इस घटना के पश्चात् भगवान महावीर पर और भी कई भयङ्कर उपसर्ग आये, जिनका वर्णन आगामी खण्ड मे किया जायगा | यहां पर एक दो मुख्य मुख्य उपसर्गों का चर्णन करते हुए यह बतलाने का प्रयत्न करेंगे कि उनसे हमें क्या शिक्षा मिल सकती है ।
एक बार भगवान महावीर "श्वेताम्वरी” नगरी की ओर चले, मार्ग में एक गुवाल के पुत्र ने उनसे कहा "देव" यह मार्ग "श्वेताम्बरी" को सीधा जाता है पर इसके मार्ग में एक भयङ्कर दृष्टिविष सर्प रहता है। उसके भयङ्कर विप प्रकोप के कारण उस जमीन के आस पास पक्षियों तक का सभ्चार नहीं है, केवल वायु ही उस स्थानपर जा सकती है । इसलिये कृपा करके इस मार्ग को छोड़ कर उस मार्ग से चले जाईये, क्योंकि जिस कर्ण फूल से कान टूट जायं वह यदि सोनेका भी हो तो किस काम का ? गुवाले की बात सुन कर परम योगी : महावीर ने अपने दिव्यज्ञान से उस सर्प को पहचाना। उन्हें मालूम हुआ कि वह
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