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भगवान् महावीर
सर्प भव्य है, सुलभ बोधी है, किसी भयङ्कर अनिष्ट को कर प्रकृति के उदय से वह अभव्य की तरह दृष्टिगोचर हो रहा है, पर वास्तव में वह ऐसा नहीं है । वह थोड़े ही परिश्रम से सुमार्ग पर लगाया जा सकता है । चल्कि जितनी प्रबल शक्ति को वह कुमार्ग पर व्यय कर रहा है उतनी ही सुमार्ग पर भी कर सकता है ।
किसी भी प्रकार की बलवान मनःस्थिति फिर चाहे सुमार्ग पर लगी हो, चाहे कुमार्ग पर बहुत उपयोगी हुआ करती है । क्योंकि दोनों स्थितियां समान शक्ति सम्पन्न होती हैं । उस प्राणी की स्थिति से जिसके पास की शक्ति बिल्कुल ही नहीं, उससे उस प्राणी की शक्ति विशेष उत्तम है, जिसकी प्रबल शक्ति कुमार्ग पर लगी हुई हो क्योंकि कुमार्ग पर लगी हुई शक्ति तो थोड़े ही प्रयत्न से सुमार्ग की थोर मोड़ दी जाती है और वह अभव्य प्राण थोड़े ही प्रयत्न से भव्यता की ओर झुका दिया जा सकता है । पर जिसके पास शक्ति हो नहीं है- जो पापारण- प्रतिमा की तरह निश्चल अकर्मण्य है जो पाप पुन्य से रहित एव गति हीन है । उसमें नवीन शक्ति का उत्पन्न करना अत्यन्त कष्ट साध्य है । उसी की दशा सब से अधिक शोचनीय है । हम लोग तीव्र अनिष्ट कारक प्रवृति की निन्दा करते हैं उसे धिक्कारते हैं, पर उसके साथ इस बात को भूल जाते हैं कि यह शक्ति जितनी तीव्रता के साथ श्रनिष्टकारक कृत्य कर सकती है, यदि इष्ट कारक काय्यों की ओर झुका दी जाय तो उन कामों में भी वह उतनी ही प्रतिभा दिखला सकती है। जैन दर्शन में इसीलिए इस तत्व की योजना की गई है कि जो आत्मा तीव्र अनिष्ट कारक शक्ति के प्रभाव से