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भगवान् महावार धुजन
अटल बनाए रखता है, वही धर्म व्यक्ति को, जाति को, देश को और विश्व को लाभदायी हो सकता है ।
लेकिन इसमें एक बड़ी भयंकर अनिवार्य्यं वाघा उपस्थित होती है । यह बाधा मनुष्य प्रकृति के कारण समाज मे उत्पन्न होती है, प्रत्येक मानसशाख-वेत्ता इस बात को भली प्रकार जानता है कि मनुष्य प्रकृतिदोष और गुणों की समप्टि है। जहां उसमे अनेक देवोचित गुणो का समावेश रहता है, वहाँ अनेक असुरोचितदोष भी उसमें विद्यमान रहते हैं । मनुष्य प्रकृति की यह कमजोरी इतनी अटल और अनिवार्य है कि ससार का कोई भी धर्म किसी भी समय में समष्टिरूप से इस कमजोरी को न मिटा सका और न भविष्य ही में उसके मिटने की आशा है । यह कभी हो नही सकता कि सृष्टि से ये क्रूर और घातक प्रवृत्तियाँ बिल्कुल नष्ट हो जायँ । प्रकृति के अन्तर्गत हमेशा से ये रही हैं और रहेगी । विरुद्ध प्रकृतियों की इसी समष्टि के कारण प्राणी वर्ग में और मनुष्य जाति मे नित्यप्रति जीवन कलह के दृश्य देखे जाते हैं ।
अतएव यह आशां तो व्यर्थ है कि कोई धर्म इन कुप्रवृत्तियों का नाश कर विश्व व्यापी शान्ति का प्रसार करने में सफल होगा । हाँ इतना अवश्य हो सकता है—यह बात मानना सम्भव भी है। कि प्रयत्न करने पर मनुष्य समाज मे कुप्रवृत्तियो की संख्या कम और सत्प्रवृत्तियों की संख्या अधिक हो सकती है । अतः निश्चय हुआ कि जो धर्म मनुष्य की सत्प्रवृत्तियों का विकास करके सामाजिक शान्ति की रक्षा करता हुआ मनुष्य जाति को आत्मिक उन्नति का मार्ग बतलाता है वही धर्म श्रेष्ठ गिना जा सकता है ।