________________
२७१
भगवान महावीर
ने कहा-ौतम केवली की आशातना मत करो।" यह सुन गौतम ने उनसे भी इसके लिए क्षमा मांगी।
गौतम फिर सोचने लगे.-"अवश्य मैं इस भव में सिद्धि न पा सकूगा। क्योंकि मैं गुरु कर्मी हूँ। इन महात्माओं को धन्य है जिनको कि क्षणमात्र में कैल्य प्राप्ति हो गई।" गौतम के मन की स्थिति को अपने ज्ञान द्वारा जान कर प्रमु ने उससे कहा गौतम् ! तीर्थंकरों का वचन सत्य होता है अथवा देवता का ? गौतम ने कहा-तीर्थकर का।
प्रमु ने कहा-तब अधीर मत हो, खिओं, शिष्यों पर गुरु का स्नेह द्विदल (वह अन्न जिसकी दाल वनती है ) के ऊपर के तृण के समान होता है। जो कि तत्काल दूर हो जाता है। पर गुरु पर शिष्य का स्नेह ऊन की चटाई के समान दृढ़ होता है । चिरकाल के संसर्ग से हमारे पर तुम्हारा स्नेह बहुत दृढ़ हो गया है। यह स्नेह का जब अभाव होगा तभी तुम्हें कैवल्य की प्राप्ति होगी।
राजगृह नगर के समीप वर्ती "शालि" नामक ग्राम में चन्या नामक एक स्त्री आकर रही थी, उसकी सारी सम्पत्ति
और वंश नष्ट हो गया था। केवल सगमक नामक एक पुत्र चचा हुआ था । उसको साथ लेकर वह वहां रहती थीं । सङ्गमक वहाँ के निवासियों के बछड़ों को चराता था। एक बार किसी पर्वोत्सव का दिन आया । घर घर खीर खाण्ड के भोजन बनने लगे, संगमक ने भी इस प्रकार का भोजन बनाते हुए देखा । उन भोजनों को देख कर उसकी इच्छा भी खीर खाने को हुई तब उसने घर जाकर अपनी दीन-माता से खीर बनाने