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भगवान महावीर
उपरोक्त विवेचन के पढ़ने से पाठक भली प्रकार समझ सकते हैं कि, गणधरों के कहे हुए सूत्रों के ऊपर समय की कितनी भयङ्कर चोटें लगी। जिस साहित्य के उपर प्रकृति की ओर से इतना भीषण प्रकोप ,हो वह साहित्य परंपरा में जैसा का तैसा चला आये यह बात किसी भी बुद्धिमान के मास्तिष्क को स्वीकार नहीं हो सकती। जो साहित्य आज हम लोगों के पास में विद्यमान है वह दुष्कालो के भीषण प्रहारों के कारण एवं काल रुदि, स्पो आदि अनेक कारणो से बहुत विकृत हो गया है।
जैन-दर्शन नित्यानित्य वस्तुवाद का प्रतिपादन करना है। उसकी दृष्टि से वस्तु का मूल तत्त्व तो हमेशा कायम रहता है पर उसकी पर्याय में परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन हुआ करते हैं। समय समय पर होने वाले ये परिवर्तन बिलकुल स्वाभाविक
और उपयोगी भी होते हैं । जैन-दर्शन में यह सिद्धान्त सर्वव्यापी होने ही से उसका नाम अनेकान्त दर्शन पड़ा है। उसका यह सिद्धान्त प्रकृति के सर्वथा अनुकूल भी है। प्रकृति की रचना ही इस प्रकार की है कि वन के समान कठोर और घन पदार्थ भी संयोग पाकर-परिस्थितियों के फेर में पड़कर-मोम के समान मुलायम हो जाता है और मोम की मानिन्द मुलायम पदार्थ भी कभी २ अत्यन्त कठोर हो जाता है। ये बातें बिलकुल स्वाभाविक हैं, अनुभव प्रतीत हैं। ऐसी दशा में भगवान महावीर के समय का धार्मिक रूप इतनी कठिन परिस्थितियों के फेर में पड़कर परिवर्तित हो जाय तो कोई आश्चर्य की बात नही। यह परिवर्तन तो प्रकृति का सनातन नियम है ।