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भगवान महावीर
चारण के समान दिव्य संगीत प्रारम्भ किया, और कोई प्रभु को गाट आलनिन थे, अपनी दीर्घ काल जनित विभोगामि को शांत फरने लगी, कोई अपनी लयकोली कमर के टुकडे करती हुई नाना प्रकार के हाव-भाव युक्त नृत्य करने लगी।
यदि कोई साधारगा फुल का तपस्वी-जिसने यौवनकाल में इस प्रकार के सुलों का अनुभव नहीं किया है-होता तो निधय था कि वह इम इन्द्र पुरी के नन्दनकानन को और उसमे विचरण करनेवाली मिलोलमयी रमग्गियों को देख कर तपस्या में बलित हो जाता। पर इस स्थान पर तो-जहाँ कि सद्गम अपनी विविध चेष्टाओं की प्राजमा रहा था-महावीर थे, ये वे
महावीर थे जिन्होंने अपने यौवन-फाल में इसी प्रकार के भोगों को गधी के माध भोगा था, और इनकी अपूर्णता को पूर्णतया समनफर एक दिन बहुत सन्तोप के साथ इनको लात मार हो थी, कैसे मम्भव था कि वही महावीर उन्ही भोगो की पुनगवृति पर गैमा जात । पतलब यह है कि सद्गम की यहचष्टा भी निरथंक ईवमय भागवती अपसराण प्रपनासा मुख लेकर चली गई।
पर साम महजही हारनेवाला देव न था, उस उपाय में भी प्रसफलता होते देख उसने एक नवीन कृत्य की योजना की। वहम बात को जानता था कि महावीर अपने मातापिता के बडे ही भक्त थे। उन्होंने अपनी उम्र में कभी मातापिता की आना का उल्लघन नहीं किया था। ऐसी स्थिति में यदि इस समय भी उनके माता-पीता के प्रति रूप में किसी को यहाँ उपस्थित किया जाय तो सम्भव है कि यह तपस्वी नपत्या से स्खलित हो जाय ।