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भगवान् महावीर गई तब उनके पूर्व भव के बैरी की एक आत्मा जो सुदृष्ट दैन की योनि मे वहां रहती थी अपनी पूर्ण शत्रुता का स्मरण हो आया । यह देव पूर्व भव में एक सिंह था और महावीर "त्रिपुष्ट " नामक मनुष्य पर्याय में थे। उस समय उन्होने एक मामूली कारण के वशीभूत होकर सिंह को मार डाला था । छोटे छोटे कारणों के वशीभूत होकर जो लोग किसी प्राणी के बहूमूल्य प्राणों को हरण कर लेता है उसका बदला "कर्म की सत्ता " बहुत ही शक्ति के साथ चुकाती है । त्रिपुष्ट को जितना जीने का अधिकार प्रकृति से प्राप्त हुआ था उतना ही सिंह को भी प्राप्त था । कर्म की सत्ता ने जितनी आयु उस सिंह के निमित्त निर्धारित कर रक्खी थी उसे बोच ही में खण्डित करके त्रिपुष्ट ने प्रकृति के नियम में एक प्रकार की विश्रृंखला उत्पन्न कर दी थी। प्रकृति के किए हुए उस अपराध का बदला नियत समय पर त्रिपुष्ट की आत्मा को मिलना अनिवार्य्य था । मनुष्य का कर्त्तव्य अपने से हीन श्रेणी के जीवों की रक्षा करने का है । उसको अपने अधिकार और चल का प्रयोग अपने से नीची श्रेणियों के प्राणियों की रक्षा करने मे करना चाहिये । यदि वह अपने इस पवित्र कर्त्तव्य के पालन में त्रुटि करके प्रकृति की साम्यावस्था में किसी प्रकार की विषमता उत्पन्न करता है तो प्रकृति उस विषमता को पुन. साम्य करने का प्रयत्न करती है । इस प्रयत्न में कर्ता को अपने कृत्य का दंड भी भोगना पड़ता है । safarear को मिटाने में प्रकृति को जो समय लगता है उसे हमारे शास्त्रो में "कर्म की सत्तागत अवस्था" कहते हैं। इसके पश्चात् जिस समय में कर्ता की आत्मा के साथ प्रकृति का
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