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प्रत्याघात होता है और कर्ता को अपने कृत्य का उचित फल मिलने लगता है उस समय को हमारे शास्त्र “कर्मका उदय काल" कहते हैं । “कर्म की सत्तागत" अवस्था में ही यदि आत्मा सावधान होकर तपस्या के द्वारा अपने कृत्य का प्राश्चित कर लेती है तो वे कर्म न्यून बल हो जाते हैं। सत्तागत अवस्था मे तो वे पश्चाताप या तपस्या की अग्नि से भस्म किये जा सकते हैं पर 'उदय काल के पश्चात् निकाचित अवस्था में तो उनका फल भोगना अनिवार्य हो जाता है । उस समय न तो पश्चात्ताप की "हाय" ही उन्हें दूर कर सकती है और न तपस्या की ज्वाला ही उन्हें भस्म कर सकती है । अस्तु !
भगवान् महावी
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महावीर को देखते ही सुदृष्ट ने पूर्व जन्म का बदला लेना प्रारम्भ किया । उसने नदी के अन्दर भयङ्कर तूफान पैदा किया । नदी का जल चारो ओर भयङ्कर रूप से उछलने लगा | नौका के बचने को बिल्कुल आशा न रही। उसमें बैठे हुए सब लोगों ने जीवन की आशा छोड़ दी । इतने ही में कम्वल और सम्बल नामक दो देव वहाँ पर आये । भगवान् की भक्ति से प्रेरित होकर उन्होंने उसी समय तूफान को शान्त कर दिया, और नाव को किनारे पर पहुँचा कर वे उनकी स्तुति करते 1 हुए चले गये । इस विकट समय में भी वीर भगवान् ने सुदृष्ट
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देव के प्रति किसी प्रकार का द्वेष या उन दोनो देवो के प्रति
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किसी प्रकार का रागजन्य भाव नहीं दिखलाया । देह सम्बन्धी सुख व दुःख से वे हर्ष व शोक के वशीभूत न हुए। वे जानते
थे कि सुख और दुःख के उत्पन्न होने का कारण
नियम है । ये दोनो देव भी स्वय पूर्व कारण
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प्रकृति का को कार्य्य रूप मे