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भगवान महावीर
प्लेगा अर्हन्त हूँ।" उसके इन मिथ्या वचनों को सुन गौतम स्वामी बोले "जमालि ! यदि तू सचमुच मे ज्ञानी है तो वतला कि जीव और लोक शाश्वत है या अशाश्वत ?" इस प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थ जमालि कौवे के समान मुख पसार कर चुपचाप बैठा रहा । तव भगवान ने कहा-"जमालि, यह लोक भिन्न भिन्न तत्वों से शाश्वत और अशाश्वत है। उसी प्रकार जीव भी शाश्वत और अशाश्वत है। द्रव्य रूप से यह लोक और जीव दोनों शाश्वत अर्थात् अविनाशी हैं पर प्रतिक्षण बदलते हुए पर्याय के रूप में वे अशाश्वत और विनाशो है। जिस प्रकार एक घड़ा मिट्टी की अपेक्षा से अविनाशी और घड़े की पर्याय अवस्था से विनाशी है-उसी प्रकार लोक और जीव को समझना चाहिये।"
प्रभु के इस यथार्थ कथन को उसने सुना पर मिथ्याव के उदय से उसका ज्ञान नष्ट हो रहा था इसलिए वह इस पर कुछ ध्यान न दे समवशरण से बाहर चला गया। एक बार विहार करता हुआ जमालि "श्रावस्ती" नगरी में गया। प्रिय दर्शना भी एक हजार आर्जिकाओं के साथ वहीं "टक" नामक कुम्हार की शाला मे उतरी हुई थी। यह कुम्हार परम श्रावक था। उसने प्रियदर्शना को भ्रम में पड़ी हुई देख कर विचार किया "किसी भी उपाय से यदि मैं इसे ठीक रास्ते पर लगा दें तो बड़ा अच्छा हो।" यह सोच कर उसने एक समय वाड़े में से पात्रो को इकट्ठे करते समय एक जलता हुआ तिनका बहुत ही गुम रीति से प्रियदर्शना के कपड़ों में डाल दिया। कुछ समय पश्चात् वख को जलता हुआ देख प्रियदर्शना बोली "अरे ढस देख तेरे प्रमाद से मेरा यह वन जल गया।" ढङ्क ने कहा