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काल की तरह वहां से निकला। उस सिह को पैदल अपनेको सवार, एवं उसे निःशस्त्र और अपने आपको सशस्त्र देख कर "त्रिपुष्ट" ने विचारा कि यह युद्ध तो समान युद्ध नहीं है । यह सोच कर वह सत्र शस्त्र को फेंक कर रथ पर से उतर पड़ा । यह देखते ही उस सिंह को जाति स्मरण हो आया। उसने अत्यन्त क्रोधान्वित हो "त्रिपुष्ट" पर आक्रमण किया, पर त्रिपुष्ट ने बहुत शीघ्रता के साथ एक हाथ उसके नीचे के जबड़े में और दूसरा ऊपर के जबड़े मे डाल दिया और अपने अखण्ड पराक्रम से उसके मुह को चीर दिया । सिंह घायल होकर गिर पड़ा । एक साधारण नि.शस्त्र मनुष्य के द्वारा अपनी यह दशा देख कर वह बड़ा दुखी हो रहा था, उमी समय इंद्रभूति गणधर के जीव ने जो कि उस समय " त्रिपुष्ट" का सारथी था, उस सिंह को प्रबोधा, जिससे शान्ति पाकर सिंह ने प्राण त्याग किया। उधर दोनों कुमार अपना कर्तव्य पूर्ण कर वापस पोतनपुर आ गये ।
इस घटना को सुन कर "अश्वग्रीव" त्रिपुष्ट से बहुत डरने लगा, उसने कपट के द्वारा इन दोनों ही कुमारों को मार डालने की योजना की, पर जब वह सफल न हुई तो उसने उनके साथ प्रत्यक्ष युद्ध छेड़ दिया । इसी युद्ध में वह स्वयं त्रिपुष्ट के हाथो
'भगवान् महावीर
- या
'मारा गया ।
इसके पश्चात् त्रिपुष्ट ने दिग्विजय करना आरंभ किया । अपने पराक्रम से दक्षिण भरतक्षेत्र तक विजय कर वे वापस पोतनपुर लौट आये । इस विजय में उन्हे कई अत्यन्य मोहक कण्ठवाले गायक भी मिले थे। एक वार रात्रि के समय उन गायकों का गाना हो रहा था, और वासुदेव
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पलंग पर लेटे हुए
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