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भगवान् महावीर सुन रहे थे । उन्होंने शैय्यापाल को आज्ञा दे रक्खी थी कि जब मुझे निद्रा लग जाय तब इन गायकों को विदा कर देना । कुछ समय पश्चात् त्रिपुष्ट तो सो गये पर संगीत मे तल्लीन हो जाने के कारण शैय्यापाल गायकों को विदा करना भूल गया। यहा तक कि उन्हें गाते गाते प्रातःकाल हो गया। उन गायको को गाते देख कर वासुदेव ने क्रोधित हो शैय्या पालक में पूछा कि ' तू ने अभी तक इनको विदा क्यों नहीं किये। शैय्यापाल ने कहा-प्रभु संगीत के लोभ से । यह सुन कर उनका क्रोध और भी भमक उठा और तत्काल ही उन्होंने उसके कान में गर्म गर्म गला हुआ सीसा ढालने की आज्ञा दी। इससे शैय्यापाल ने महायत्ररणा के साथ प्राण त्याग किये । इस दुष्ट कृत्य से "त्रिपुष्ट" ने भयकर प्रसातावेदनीयकर्म का धन्ध कर लिया । यहां से मृत्यु पाकर ये सातवें नरक में गये । और उनके वियोग में दीक्षा लेकर "अचल वलभद्र " मोन गये ।
नरक में से निकल कर "त्रिपुष्ट" का जीव केशरी (सिंह) हुआ, वहाँ से मृत्यु पाकर वह मनुष्य चौधे नरक में गया । इस प्रकार उसने तिर्यच और मनुष्य योनि के कई भवों में भ्रमण किया । तदनन्तर मनुष्य जन्म पा उसने शुभ कर्मों का उपार्जन किया, जिसके प्रताप में वह अपर विदेह की मूकानगरी के धनञ्जय राजा की रानी “धारियो" के गर्भ में गया । उस समय धारिणी को चक्रवर्ती पुत्र के सूचक चौदह स्वम दृष्टि गोचर हुए। गर्भ स्थिति पूर्ण हुए पश्चात् रानी ने एक सम्पूर्ण लक्षणो से युक्त पुत्र को जन्म दिया | माता पिता ने उसका नाम "प्रिय मित्र" रक्खा क्रमशः उसने बालकपन से यौवन प्राप्त किया, उधर संसार से