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भगवान् महावीर
भारतवर्ष के सामाजिक और धार्मिक इतिहास में यह काल बड़ा ही भोषण था । यह वह समय था जब मनुष्य अपने मनुप्यत्व को भूल गये थे-सत्ताधारीलोग अपनी सत्ता का दुरुपयोग करने लग गये थे, बलवान निलों पर छुरा तान कर खड़े हो गये थे, और वे लोग पोसे जा रहे थे जिन पर समाज की पवित्र सेवा का भार था।
समाज के अन्तर्गत अत्याचार की भट्टी धधक रही थी। धर्म पर स्वार्थ का राज्य था; कर्तव्य सत्ता का गुलाम था, करुणा पाशविकता की दासी थी, मनुष्यत्व अत्याचार पर वलिदान कर दिया गया था। शूद्र ब्राह्मणों के गुलाम थे, त्रियां पुरुषों के घर की सम्पत्ति-मात्र समझी जाने लगी थीं, प्रेम का नामो निशा केवल प्राचीन ग्रन्थो मे रह गया था। सारे समाज मे "जिनकी लाठी उसकी भस" वाली कहावत चरितार्थ हो रही थी। , मतलब यह है कि ब्राह्मणों के अत्याचारों से सारा भारत शुब्ध हो उठा था, सब लोग एक ऐसे पुरुप की प्रतीक्षा कर रहे थ जो अत्याचार की उस धधकती हुई भही को बुझा कर समाज में शान्ति की स्थापना करे जो अपने गम्भीर विचारो से भटके हुए लोगों की राह पर लगादे, जो अपने दिव्य सद्धपदेश से लोगो की आत्म-पिपासा को शान्त कर दे । एवं जो मनुष्यो को मनुन्यत्व का पवित्र सन्देशा सुना कर उस अशान्ति का नाश कर दे या यों कहिये कि जो नष्ट हुए धर्म को संशोधित कर नवीन विचारों के साथ नवीन रूप में जनता के सम्मुख रक्खे ।
समाज के अन्तर्गत जन इस प्रकार की आवश्यकता होती है तव प्रकृति उसे पूरी करने के लिए अवश्य किसी महापुरुष को