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भगवान् महावीर
के अभाव से अनन्त दर्शन, अन्तराय के अभाव से अनन्त गये, दर्शन-मोहनीय के अभाव से शुद्ध सम्यकन, चारित्रमोहनीय के प्रभाव से शुद्ध चारित्र और इन समस्त कमों के अभाव से अनन्त सुख होता है, मगर शेष के चार कमों के वाकी रहने से जीव ऐसी ही जीवन-मुक्त अवस्था मे ससार में रहता है और इसी अवस्थावाले सर्वज्ञ वीतराग तीर्थकर भगवान से सामारिक जीवा को मचे धर्म का उपदेश मिलता है, यही सर्वज्ञोपदेशित सब का हितकारी जैन-धर्म है।
ऊपर के चार अघातिया--अर्थात् वेदनीय, गोत्र, नाम और आयु-कर्मों की स्थिति पूरी होने पर जीव अपने ऊर्ध्व गमन स्वभाव से जिस स्थान पर कर्मों से मुक्त होता है उस स्थान से सीधा पवन के भकोरों से रहित अमि की तरह ऊर्ध्वगमन करता है और जहाँ तक ऊपर बताये हुए गमन सहकारी धर्म दव्य का सद्भाव है वहाँ तक वह गमन करता है। आगे धर्महग्य का प्रभाव होने से अलोकाकाश में उसका गमन नहीं होता। इस कारण समस्त मुक्तजीव लोक के शिखर पर विराजमान रहते हैं। यहाँ जिस शरीर से मुक्ति होती है उस शरीर मे जीव का आकार किश्चित न्यून होता है।
यदि यहाँ कोई यह शङ्का करे कि जव जीव मोक्ष मे लौट कर आते नहीं तथा नवीन जीव उत्पन्न होते नहीं और मुक्त होने का सिलसिला हमेशा जारी रहता है तो एक दिन संसार के सब जीव मोक्ष को प्राप्त कर लेंगे और संसार शून्य हो जायगा । परन्तु जीव-राशि अक्षय, अनन्त है, जिस तरह आकाश द्रन्य सर्वव्यापी अनन्त है। किसी एक दिशा मे विना मुड़े निरन्तर
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