SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 223
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३१ भगवान् महावीर क्षय हो जाने से वह "जीर्णश्रेष्टि" के नाम से प्रसिद्ध था । वह जव उद्यान में गया तो वहां बलदेव के मंदिर में कायोत्सर्ग में लीन प्रभु को उसने देखा । अनुमान वल से यह जान कर कि "ये अन्तिम तीर्थकर वीर प्रभु हैं ।" वह बहुत प्रसन्न हुआ । उसने बड़ी ही भक्ति से उनकी वन्दना की । उसके पश्चात् उसने सोचा कि प्रभु को आज उपवास मालूम होता है, यदि ये उपवास समाप्ति मेरे घर पर पारणा करें तो कितना अच्छा हो । इस प्रकार की आशा धारण कर उसने लगातार चार मास तक प्रभु की सेवा की, तीन दिन प्रभु को आमंत्रित कर वह अपने घर गया। उसने बहुत सें प्रासुक भोजन आहार देने के निमित्त तैयार करवा रक्खे थे । वह बड़ी उत्सुकता से प्रभु की प्रतीज्ञा कर रहा था । पर दैवयोग से उस दिन प्रभु ने उधर न जाकर वहां के नवीन नगरसेठ के यहां आहार ले लिया । यह सेठ बड़ा मिथ्या दृष्टि और लक्ष्मी के मद से मदोन्मत्त था । महावीर को देख कर इसने अपनी दासी से कहा कि जा तू उस भिक्षा दे दे। वह दासी काष्ट के पात्र, में "कुल्माष" आई वही आहार उसने महावीर को दिया । उसी ताओं ने उसके यहां "पाँचदिव्य" प्रकट किये। यह देख कर वह "जीर्ण श्रेष्टि" अत्यन्त दुखित हुआ । उसने मनही मन कहा "अहो ! मेरे समान मन्द भाग्य वाले को धिक्कार है मंग सब मनोरथ व्यर्थ गया, प्रभु ने मेरा घर छोड़ कर दूसरी जगह आहार ले लिया । " * कुल्माष—उड़द के वाकले । साधु को धान्य लेकर समय देव
SR No.010171
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherMahavir Granth Prakashan Bhanpura
Publication Year
Total Pages435
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy