________________
४४३
भगवान् महावीर
1
है । ये दोनों बातें एक दूसरे के इतनी विरुद्ध है कि एक की मौजूदगी में दूसरी रह ही नहीं सकती । इन्हीं पारस्परिक झगड़ों के कारण हम अपने सब असली सिद्धान्तों को भूल गये हैं, इसी दुम्ह और हठवादिता के कारण हमने भौतिकता के फेर मे पडकर आध्यात्मिकता को तिलांजलि दे दी है। इसी मतभेद के कारण हम जैनधर्म के उदार और विश्वव्यापी सिद्धान्तों से बहुत दूर जा पड़े हैं । यदि आज किसी जैनी से पूछा जाय कि भाई स्याद्वाद क्या है, अनेकान्त दर्शन की रचना किन सिद्धान्तो पर की गई है, जैनियों का अहिंसा तत्व किन आधारो पर अवलम्बित है तो सिवाय चुप के कुछ उत्तर नहीं मिल सकता | मिले कहाँ से, एक तो समाज का अधिकांश पैसा मुकद्दमेबाजी में खर्च हो जाता है, रहा सहा प्रतिष्ठा और नवीन मन्दिरों की योजना में उठ जाता है । साहित्य और शिक्षा की ओर किसी का ध्यान नहीं है, ध्यान हो कहां से लड़ाई झगड़ों से अवकाश मिले तव तो । हमारी सब शक्तियां इसी ओर खर्च हो रही हैं । यहाँ तक कि इनके फेर में पड़कर हम सचे जैनत्व को भूल गये हैं । मुकदमेबाजी और मतभेद के पक्षपानी प्रत्येक जैनबन्धु को भगवान् महावीर के पवित्र जीवनचरित का अध्ययन करना चाहिए । उसे देखना चाहिए कि इन झगड़ों में और महावीर के जीवन की पवित्रता में कितना अन्तर है ? भगवान् महावीर कभी हठ और दुराग्रह के अनुमोदक नही रहे, फिर हम उनके अनुयायी होकर क्यों हठ और दुराग्रह के फेर में पड़ रहे हैं । यदि यही पैसा जो मुकद्दमेबाजी में खर्च होता है महावीर के सिद्धान्तों का प्रचार करने में लगाया जाय