________________
भगवान् महावीर
१३८
जाने मे असमर्थ है, उसी प्रकार बिना मोहनीय कर्म के वेदनीय कर्मका उदय भी आत्मा को सुख दुख का अनुभव करवाने मे समर्थ रहता है ।
इस कथन का यह मतलब कदापि नहीं है कि ज्ञानी को कष्ट होता ही नहीं, प्रत्युत इसका तात्पर्य यही है कि उस कष्ट का अनुभव उसकी अवशिष्ट रही हुई मोहनीय कर्म की प्रकृतियों के अनुसार ही होता है । सुख दुख की लागणों का मूल मोहनीय कर्म है । वह जितना ही अधिक प्रबल होता है उतने ही अंशों मे आत्मा भी शरीर के सुख दुख का अनुभव करती है ।
महावीर के दीक्षाकाल में जिन जिन उपसर्गो का प्रार्दुभाव हुआ है उनको भी हमें इसी दृष्टि से देखना चाहिये। उनका मोहनीय कर्म क्षीण प्रायः हो चुका था और इस कारण उन कष्टों मे जितनी आत्म-वेदना का अश हमारी विमुग्ध दृष्टि को अनुभव होता है उतना उनकी आत्मा को नहीं हो सकता था। एक ही प्रकार का किया हुआ प्रहार जिस प्रकार सवल और निर्बल मनुष्य के शरीर पर भिन्न भिन्न प्रकार के असर पैदा करता है उसी प्रकार एक ही प्रकार का संकट, ज्ञानी और अज्ञानी की आत्मा पर भी भिन्न भिन्न प्रकार से असर करता है । भगवान् महावीर के कानों में गुवाले के द्वारा ठोके गये कीलों की कथा पढ़ कर आज भी हमारे हृदय से आन्तरिक चीख निकल पड़ती है, पर इसी घटना का खुद अनुभव करते हुए भी महावीर रंच मात्र विचलित नही हुए । उनका ध्यान तक इस घटना से नहीं टूटा, क्योकि वे महावीर थे । उनकी सहिष्णुता हम से बहुत बढ़ी चढ़ी थी। वे उत्कृष्ट श्रेणी के योगी थे। हम लोग कई बार दूसरे पर