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________________ १३.७ भगवान महावीर बड़ा ही गम्भीर कारण है। हमलोग संसारी जीव हैं, हमलोग हमारी देह को अपनी आत्मा से भिन्न समझते हुए भी उसके सुख दुःख को आत्मा का सुःख दुख हो समझते हैं । हमलोग आत्मा और देह के अनुभव को जुदा जुदा नहीं समझते, और इसी कारण ये दैहिक उपसर्ग भी हम लोगों की आत्मा को थ देते हैं । इन्हीं उपलगों में हम "अह्तत्व" की कल्पना कर महा दुखी हो जाते हैं । पर जिन महान् आत्माओ के रोम रोम मे बड़ निश्चय कूट कूट कर भरा हुआ है कि देह और देहके धर्म तीन काल में भी श्रात्मा के नहीं हो सकते हैं । जिनके हृदय मे पत्थर की लीक की तरह यह सत्य जमा हुआ है कि देह और आत्मा जुदी जुदी वस्तु है, उनके स्वभाव भी जुड़े जुदे हैं। उनकी श्रात्मा को यह शारिरिक उपसर्ग किस प्रकार विचलित कर सकते हैं, एवं कष्ट पहुँचा सकते हैं । मनुष्य के जितने भी अशों में देहादिक पुद्गलो का अभाव हता है उतने ही शो मे शरीर के सुख दुखादि कर्म उसकी श्रात्मा पर अमर करते हैं और उसी हदतक शास्त्रकारो ने मोहनीय और वेदनीय कर्म को प्रकृतियों को जुदी जुदी बतलाई । अर्थात जितने शो मे मोहनीय कर्म का प्राबल्य होता है, उतने ही अशां में वेदनीय कर्म आत्मा पर असर करता है । मोहनीय कर्म के शिथिल पडते ही वेदनीय कर्म नहीं के समान हो जाता है । यदि हम वेदनीय कर्म को एक विशाल पाटवाली नदी और मोहनीय कर्म को उसमें भरा हुआ जल मानले तो यह विषय और भी स्पष्ट हो जायगा । जिस प्रकार चाहे जितने ही विशालपाट वाली नदी भी जल के बिना किसी चीज को वहा ले
SR No.010171
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherMahavir Granth Prakashan Bhanpura
Publication Year
Total Pages435
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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