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भगवान् महावीर
बीती हुई आपत्ति का अनुमान अपनी स्थिति के अनुसार कर लेते हैं पर इस प्रकार का अनुमान करते समय हम यह भूल जाते हैं कि भोक्ता की स्थिति भी हमारे समान राग द्वेष मयी एवं कमजोर है, या उसमें हमारी स्थिति से कुछ विशेषता है । हम उस पर बीती हुई आपत्ति को अपने मोह-मय चश्मे से देखते हैं और इसी कारण एक गहरी भूल में पड़ जाते हैं । भगवान् महावीर पर बीती हुई इन आपत्तियों की कल्पना हम हमारे चश्मे से देख कर उनकी सहिष्णुता की स्तुति करते हैं पर इसके साथ हम उनकी मोह विहीन आत्मस्थिति, देह विरक्ति और अगाध आत्मबल को कल्पना करना भूल जाते हैं । यदि हम उस सहिष्णुता के उत्पति स्थान अगाध श्रात्मवल को देखें तो आत्मा के किसी विशेपगुण की स्तुति करने के साथ साथ यदि हम उस वस्तु का अध्ययन करे जहां से कि उस गुण का उद्गमन हुआ है तो हमारी वह स्तुति विशेष फल प्रदायक नहीं हो सकती। महावीर के जीवन का महत्व उनकी इस कष्ट सहिष्णुता मे नहीं है । प्रत्युत उस आत्मबल और देह विरक्ति मे है जहां से इस गुण का और इसके साथ साथ और भी कई गुणों का उद्गम हुआ है । यदि हम इस उद्गम स्थान के महत्व को छोड़ देते हैं तो महावीर के जीवन में रहा हुआ आधा महत्व नष्ट हो जाता है ।
बड़ा लाभ हो ।
मतलब यह है कि महावीर पर बड़े बड़े भयङ्कर दैहिक उपसर्ग आये थे, वे उपसर्ग इतने भयङ्कर थे कि जिनको पढ़ने से ही हमारी आत्मा कांप उठती है । पर भगवान के उत्कट आत्मबल के सन्मुख वे उपसर्ग उसी प्रकार फीके पड़ गये जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश के सामने चन्द्रमा का बिम्ब पड़ जाता है । अपने