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________________ १६९ भगवान् महावीर क्षमा, समता और दया की पवित्र धारायें उस सभा में पैठनेवाले प्रत्येक प्राणी के हृदय में शतधार और सहस्रधार से प्रवाहित हो रही थी। यह समवशरण “अपाया" नामक नगरी के बाहर रचा गया था। जिस समय समवशरण सभा में प्रभु का उपदेश सुनने के निमित्त हजारों पुरुप स्त्री जा रहे थे। ठीक उसी समय में किसी धनाढ्य गृहस्य के यहाँ इन्दभूति अग्निभूति और वायुभूति आदि ग्यारह ब्राह्मण पण्डित यन्न करवा रहे थे। उम काल में उनकी विद्वत्ता की ख्याति बहुत दूर दूर तक फैली हुई थी । इन लोगों ने असख्य नर-नारियो को उधर की ओर आते हुए देख कर पहले तो यह सोचा कि ये सब हमारे इस यन को देखने के निमित्त पा रहे हैं और यह जानकर उन्हें बडा आनन्द भी हुआ। पर जब उन्होंने देखा कि इन आगान्तक व्यक्तियों में से किसी ने उनकी ओर आँख उठा कर भी न देखा, तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुश्रा । अन्त मे किसी से पूछने पर मालूम हुआ कि ये सब लोग सर्वज्ञ प्रभु महावीर की वन्दना करने को जा रहे हैं। इन्द्रभूति ने यह सुन कर अपने मन में कहा कि संसार में मेरे सिवाय भी दूसरा कोई सर्वज्ञ है। जिसके पास ये सब लोग दौड़े जा रहे हैं, सब से बड़ा आश्चर्य तो यह है कि इस समय परम पवित्र यज्ञ-मण्डल की ओर भी इनका ध्यान आकर्षित नहीं होता। सम्भव है कि जिस ढग का इनका सर्वन होगा, उसी ढग के ये भी होंगे। ऐसा सोच वह अप्रतिभसा होकर चुप हो गया। इसके कुछ समय पश्चात् जब सब लोग भगवान महावीर
SR No.010171
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherMahavir Granth Prakashan Bhanpura
Publication Year
Total Pages435
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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