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की वन्दना करके वापिस आ गये तब इन्द्रभूति ने उनसे पूछा कि भाई, सर्वज्ञ देखा ! कैसा है ! तब उन्होने कहा कि अरे, क्या पूछते हो, उनके गुणों की गिनती करना तो गणित के पारिधी से भी बाहर है । यह सुन कर इन्द्रभूति ने मन ही मन सोचा कि यह पाखण्डी तो कोई जबरदस्त मालूम होता है । इसने तो बड़े बड़े बुद्धिमान मनुष्यो की बुद्धि को भी चक्कर में डाल दिया है । अव इस पाखण्डी के पाखण्ड की पोल को शीघ्रातिशीघ्र खोलना मेरा कर्तव्य है । नहीं तो असंख्य भोले प्राणी इसके पाखण्ड की ज्वाला में जल कर भस्म हो जायेंगे । यह सोच कर वह बड़े ही गर्वपूर्वक अपने पाँच सौ शिष्यो को लेकर महावीर को पराजित करने के इरादे से चला । सत्र से प्रथम तो वहाँ के ठाट को देख कर ही स्तम्भित हो गया, उसके पश्चात् वह अन्दर गया । महावीर तो अपने ज्ञान के प्रभाव से उसका नाम, गोत्र और उसके हृदय मे रहा हुआ गुम संशय जिसे कि उसने किसी के सामने प्रकट न किया था, जानते थे । उसे देखते हो अत्यन्त मधुर स्वर से उन्होने कहा:" हे गौतम । इन्द्रभूते त्वं सुखेन समागतोसि" महावीर के मुँह से इन शब्दों को सुन कर उसका आश्चर्य और भी वढ गया । पर यह सोच कर उसने अपना समाधान कर लिया कि मेरा नाम तो जगत प्रसिद्ध है, यदि उसे इसने कह दिया तो क्या हुआ । सर्वज्ञ तो इसे तव समझना चाहिये कि जब यह मेरे मनोगत भावों को बतला दे ।
भगवान् महावीर
गुर
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इतने ही में महावीर कहते हैं कि हे विद्वान् ! "तेरे मन में जीव है या नहीं" इस बात का सशय है और इसका कारण वेद