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अपने चरण कमलों से पृथ्वी को पवित्र करते हुए एक बार "भगवान महावीर " राजगृही नगरी मे पहुँचे । इस स्थान पर उन्हे "गौशाला" नामक एक व्यक्ति शिष्य होने की इच्छा से मिला । महावीर उस समय किसी को भी शिष्य को तरह ग्रहण न करते थे । क्योकि उस समय तक उनको कैवल्य की प्राप्ति नही हुई थी भगवान् महावीर यह जानते थे कि जब तक मनुष्य अपने आपका पूर्ण कल्याण नही कर लेता तब तक वह अपनी सामर्थ्य से दूसरे का दारिद्र्य हरण करने में असमर्थ होता है । और इसी कारण जब गौशाला ने उनसे शिष्य बना लेने की याचना की तो उन्होंने मौन ग्रहण कर लिया, तो भी गौशाला ने प्रभु का साथ न छोड़ा, उसने महावीर में गुरु बुद्धि की स्थापना कर भिक्षा के द्वारा अपना गुजर करना प्रारंभ किया । सत्य को प्राप्त करने की उसमें कुछ अभिलाषा थी, आत्मशक्ति का विकास करने के निमित्त योग्य पुरुषार्थ करने को वह प्रस्तुत था, पर दुर्भाग्य से उस समय भगवान महावीर उपदेश के कार्य से बिलकुल विमुख थे । उस समय आत्मचिन्तन और कर्मनिर्जरा के सिवाय उनका दूसरा कार्य न था, ऐसे अवसर में गौशाला ने महाबीर के सम्बन्ध में अपनी मनोकल्पना से जो बोध ग्रहण किया वह विल्कुल एक तर्फा और अनिष्ट कर साबित हुआ, वह कई बार भगवान को किसी भावी घटना के विपय में पूछता, महाबीर अवधिज्ञान के बलसे वही उत्तर देते जो भविष्य में होने वाला होता था । उनका कथन बिल्कुल " बावन तोला, पाव रतो," उतरते देख कर गौशाला ने यह सिद्धान्त निश्चय कर लिया कि भविष्य में जो कुछ होने वाला है, वही होता है ।
भगवान महावीर
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