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भगवान् महावीर
था दृष्टियों में योग के आठ अंग जैसे-यम, नियम, आसन, प्राणायाम. प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि क्रमश: मिद्ध किये जाते हैं । इस तरह श्रात्मोन्नति का व्यापार करते हुए जीव जब अन्तिम भूमि में पहुँचता है, तब उसका आवरण नी होता है और उसे केवल ज्ञान मिलता है ।
महात्मा पातलि ने योग के लिये लिखा है- "योगश्चित - वृत्ति निशेव." अर्थात् चित्त की वृतियों पर अधिकार रखना इधर, उधर भटकती हुई वृत्तियों को आत्म स्वरूप में जोड कर रखना इसको योग कहते हैं। इसके सिवा इस हद पर पहुँचने के लिये जो शुभ व्यापार हैं वे भी योग के कारण होने से योग कहलाते है ।
दुनिया में मुक्ति विषय के साथ सीधा सम्बन्ध रखने वाला एक अध्यात्म शास्त्र है । अध्यात्म शास्त्र का प्रतिपाद्य विषय है मुक्ति साधन का मार्ग दिखाना और उसमे आनेवाली बाधाओं को दूर करने का उपाय बताना । मोत साधन के केवल ' दो उपाय 1 प्रथम पूर्व सचित कर्मों का क्षय करना और द्वितीय, नवीन थानेवाले कर्मों को रोकना । इनमे प्रथम उपाय को 'निर्जग' और द्वितीय उपाय को 'सवर' कहते हैं - इनका वर्णन पहले किया जा चुका है । इन उपायो के सिद्ध करने के लिये शुद्ध विचार करना, हार्दिक भावनाएँ दृढ़ रखना, अध्या-त्मिक तत्त्वों का पुनः पुन. परिशीलन करना और खराब सयोगो से दूर रहना यही अध्यात्मशास्त्र के उपदेश का रहस्य है ।
आत्मा में अनन्त शक्तियां है । आवरणों के हटने से आत्मा की जो शक्तियां प्रकाश में आती हैं उनका वर्णन करना कठिन