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भगवान् महावीर मनुष्य का एक प्रबल शत्रु है। जब मनुष्य हृदय में अहंभाव की उत्पत्ति होती है तब उसकी आत्मा उच्चस्थान से पतित होकर चहुत निकृष्ट स्थिति का उपार्जन करती है। कार्य के साथ उसका फल, प्रयत्न के साथ उसका परिणाम, और आघात के साथ उसका प्रत्याघात बँधा हुआ है । आत्मा जव अहंकार के वशीभूत हो कर अपने से हीन कोटि वाले की भर्त्सना करनी है तब वह उसी स्थिति का वन्ध बाँधती है । "मरीचि” ने एक बहुत ही थोड़े समय के लिए अपनी जाति और कुल का अभिमान किया था उसका फल भी उसे भुगतना पड़ा । अहङ्कार ऐसी भयङ्कर वस्तु है कि वह महापुरुषो का पीछा भी नहीं छोड़ती ।
इसी प्रकार और भी अनेक तत्व हमे इन भवो के वर्णन मे देखने को मिलते हैं । उन सबका विस्तृत निवेचन करना इस ग्रन्थ में असम्भव है । पाठक स्वयं निष्कर्ष निकाल सकते हैं।
भगवान महावीर का जन्म
त्रिशला रानी को गर्भ धारण किये जब नव मास और साढ़े सात दिन हो गये, तब एक दिन दशी दिशायें प्रसन्न हो उठी । सुगन्धित पवन बहने लगा, सारा ससार हर्प से परिपूर्ण हो उठा, पुष्प वृष्टि होने लगी । चारों ओर शुभ शकुन होने लगे। वह दिन चैत्र शुक्ला त्रयोदशी का था, उस समय चन्द्र हस्तोतरा नक्षत्र में था । ठीक ऐसे ही समय मे त्रिशला देवी ने सिंह के लच्छन वाले सुवर्ण के समान कान्तिवान एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया ।
जैन शास्त्रों के अन्तर्गत प्रत्येक तीर्थंकर के जन्म का वर्णन करते हुए लिखा है कि जब किसी तीर्थकर का जन्म होता है तो