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________________ A ४१३ भगवान महावीर और कहाँ हमारी जैन समाज की आधुनिक कलह प्रियता। किसी ममय में जहाँ संसार के अन्तर्गत जैन-धर्म की दुन्दुभि बजती थी वहाँ 'प्राज हमारा समाज संसार की निगाह में हास्यास्पद हो रहा है। इस विपरीतका के मुख्य कारणों को जब हम खोजते हैं तो कई अनेक कारणों के साथ रहमें यह भी मालूम होता है कि जैन साहित्य में विकृति उत्पन्न होना भी इस दुर्गति का मूल कारण है। जैन साहित्य में यह विकृति किस प्रकार उत्पन्न हुई इसके कुछ कारण उपस्थित करने का हम प्रयत्न करते हैं। दीर्घ तपस्वी महावीर और बुद्ध दोनों समकालीन थे। दोनों ही महापुरुप निर्वाणवादी थे। दोनों एक ही लक्ष्य के अनुगामी थे। पर दोनों के पथ भिन्न २ थे दोनों के लक्ष्यसाधन संबंधी तरीके भिन्न २ थे । बुद्ध मध्यम मार्ग के उपासक थे। महावीर तीन मार्ग के अनुयायी थे। बुद्ध ने अपने मार्ग की व्यवस्था में लोकचि को पहला स्थान दिया था, पर महावीर ने लोकरुचि की विशेष परवाह न की । उन्होंने कभी इस बात का दुराग्रह न किया कि "जो मैं कहता हूँ वदी सत्य है शेप सब झूठे हैं।" वे इस बात को जानते थे कि एक ही लक्ष्य की सिद्धि के लिये कई प्रकार के साधन होते हैं इससे साधन भेद में विरोध करना व्यर्थ है। यहाँ तक कि मनके समसामयिक अनुयायियों का लक्ष्य एक होते हुए भी सेवा के मार्ग जुदे जुदे थे। कोई मुमुक्ष निराहाग रहकर अपनी तपस्या को उत्कृष्ट करने का पयन करता था, तो कोई आहार भी करता, कोई विलकुल दिगम्बर होकर विचरण करता था, तो कोई सवस्त्र भी रहता था। कोई
SR No.010171
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherMahavir Granth Prakashan Bhanpura
Publication Year
Total Pages435
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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