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भगवान् महावीर
४१४. स्वाध्यायी था, कोई विनयी था और कोई ध्यानी। मतलब यह कि किसी पर किसी प्रकार का अनुचित बन्धन न था। उनके अनुयायी वर्ग का सिद्धान्त था कि "धर्मो मङ्गल मुक्ट्रिं अहिंसा संजमोतनो" अर्थात् अहिंसा, संयम और तपरूपधर्म उत्कृष्ट मङ्गल है। इस सिद्धान्त में कहीं भी एक देशीयता की गंध न थी। इन सब बातों पर से हम भगवान महावीर को जीवन दशा, उनके समय की परिस्थिति और उनके ध्येय से परिचित हो सकते हैं।
जिस समय भगवान महावीर भारतवर्ष में अपना कल्याणकारी उपदेश दे रहे थे उस समय अर्थात् आज से ढाई हजार वर्ष पहले आज की तरह उपदेश का प्रचार करने के इतने साधन न थे। लेखनकला तो उस समय भी प्रचलित थी पर उसका उपयोग केवल व्यवहारिक कामों में ही होता था। मुमुक्ष जन भगवान महावीर के पास उपदेश श्रवण करने जाते थे, वहां जो कुछ वे सुनते उनमें से मुख्य २ बातें मन्त्र की तरह हृदयगम कर लेते थे।
भगवान महावीर के मुख्य शिष्यों ने अपने अनुयाईयो को 'सिखाने के लिये उनके मुख्य २ उपदेशों को संक्षेप में कंठान कर रक्खे थे। जिस समय आवश्यकता होती उस समय, "भगवान महावीर ने ऐसा कहा है या वर्धमान् के पास से हमने ऐसा सुना है" इस प्रकार के प्रारम्भ से वे अपने उपदेश अथवा व्याख्यान को देते थे। ये सब उपदेश उस समय की सरल लोक भाषा में :(मागधी मिश्रित प्राकृतभाषा में) होने से 'आबाल-वृद्ध सबको समझने में सुगम और सुलम होते थे।