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भगवान् महावार
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होने पर यह माना हुआ जीव भ्रम हो जाता है और इसका माना हुश्रा सुख दुख दूर होने पर सच्चिदानन्द स्वरूप होने को मोज्ञ कहते हैं। पर जिम विचार मे अनेक प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाले जीवों की सत्ता नहीं मानी जाती वह विचार अनुभव तथा न्याय से कितना दूर है यह बात स्वयं स्पष्ट है।
जैन-तत्वज्ञान में माने हुए छः द्रव्यो का संक्षिप्त विवेचन हम ऊपर कर आये हैं। हम यह बतला आये हैं कि जैन धर्म में चेतन द्रव्य एक जीव ही माना गया है । जैन सिद्धान्त में जीव अनादि और अनन्त हैं, उसका स्वरूप सचिदानन्द है। इन जीवों के दो प्रकार बतलाए गये हैं जिनकी सत्ता जन्म-मरणमय होती है, जिनकी चेतना अनन्तज्ञान और अनन्त दर्शनमय नहीं होती
और जिनका आनन्द अनन्त सुव नहीं होता वे "संसारीजीव" कहलाते हैं और वे जीव जो अमर, अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शनमय होते हैं मुक्त कहलाते हैं।
संसारी जीव प्रशुद्ध अवस्था में होते हैं। वे प्रत्यक्ष रूप से शरीर के वन्धन में होते हैं । उनको विशेष कर इन्द्रिय जान ही होता है। अपने साथ शरीर का निमित्त, नैमित्तिक, सम्बन्ध होने के कारण वे अपने में और शरीर में भिन्नता का अनुभव नहीं करतं । इस कारण वे इच्छाओं के वशीभूत होकर मन्द और वीन कपाययुक्त अनेक क्रियाए करते रहते हैं। इस प्रकार अशुद्ध अर्थात् पुद्गल के बन्धन बंधा हुआ जीव पुद्गल के प्रभाव में आकर कार्य करता रहता है। उन पुद्गल परमाणुओं कोजो जीव पर अपना प्रभाव डालते हैं जैनशाखों में "कर्म' कहते हैं। इनकर्मों के बाधन में पड़कर जीव मृगतृष्णा की तरह रंसार