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भगवान महावीर
३४६ के अन्दर चक्कर लगाता हुआ अनेक दुःखों को भोगता है। जब तक इनसे उसका छुटकारा नहीं होजाता तब तक उसे सच्चा, आकुलता रहित सुख नसीव नहीं हो सकता, इसी कारण कर्मबन्धन से मुक्त होने की प्रत्येक जीव को आवश्यकता होती है।
जीवो की परिणति तीन तरह की होती है-एक शुभ अर्थात् अच्छे काम, दूसरी अशुभ अर्थात् बुरे काम, और तीसरी शुद्ध अर्थात् वैराग्य रूप । शुभ परिणति से पुण्य-बन्धन होता है, जिससे ससारिक सुख की प्राप्ति होती है और अशुभ परिणति से पाप-बन्धन होता है, जिससे संसार में दुख की सामग्री मिलती है और दुख भोगना होता है। शुद्ध या वैराग्य वाली परिणति से जीव के पुण्य-पापरूपी बन्धन हलके होते होते दूर हो जाते हैं और जीव मे शुद्ध परम सच्चिदानन्द अवस्था का आविर्भाव होता है।
इन शुभाशुभ परिणतियों या पुण्य-पापरूपी बन्धनो के कारण विशेष करके चार होते हैं, एक मिथ्यात्व अर्थात् मिथ्या श्रद्धा दूसरा अविरत अर्थात् हिंसा और इन्द्रिय तथा मन के विषयों मे प्रवृत्ति, तीसरा तीव्र और तीव्रतर, मन्द और मन्दतर भेदवाले चार-क्रोध, मान, माया, लोभ, कषाय और नेकपाय और चौथा मन, वचन, काय नामक तीन योग जो कर्मों के आगमन के मुख्य कारण हैं। यहाँ यह भी समझ लेना होगा कि लोभ अर्थात् इच्छा पाप (जिसका यहाँ बन्धन से मतलब है) का कारण है। लोभ के उदय से जीव प्रकृति से संयोग करता है और पुद्गल पदार्थों के न मिलने से दुखी होता है।