________________
१७९
भगवान् महावीर
onमगधनरेश, श्रेणिक और इनका पुत्र कोणिक आदि अनेक क्षत्रिय भूपति थे। आनन्द, कामदेव आदि प्रधान दृढ़ उपासकों में "शकहाल" कुम्हार था । और शेष ९ वैश्य थे। "ढंक" कुम्हार होते हुए भी भगवान् का सममदार और दृढ़ उपासक था। बधक, अम्बड़ आदि अनेक परिव्राजक और सोमील आदि अनेक ब्राह्मणों ने भगवान् का अनुसरण किया था। गृहस्थ उपासिकाओं में "रेवती, सुलमा" और "जयन्ति" के नाम प्रख्यात हैं । "जयन्ति" जैसी भक्त थी वैसी विदुपी भी थी । वह आजादी के साथ भगवान से शङ्का समाधान करती थी।
भगवान महावीर के पूर्व से हो जो जैन सम्प्रदाय चला आ रहा था वह उस समय "निगट्ट" के नाम से प्रसिद्ध था। उस समय प्रधान निगं? "क्शी कुमार" आदि थे और वे सब अपने को-पार्श्वनाथ की परम्परा के अनुयायी बतलाते थे। वे लोग तरह तरह के रगों का कपड़ा पहनते थे। एवं चातुयमि धर्म अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह इन चार व्रतों का पालन करते थे। भगवान् महावीर ने इस पुरातन परम्परा में दो नवीन बातों का और समावेश कर दिया। एक "अचेलधर्म" (नगनत्व) और दूसरी ब्रह्मचर्य । इससे मालूम होता है कि पहले परम्परा में वख और बी के सम्बन्ध में अवश्य कुछ न कुछ शिथिलता आ गई होगी। इसी को दूर करने के लिए महावीर ने इन दोनों नवीन बातों को निग्रन्थत्व में स्थान दिया । पर प्रोफेसर हर्मन जेकोबी का मत कुछ और ही है। वे अपने जैन सूत्रों की प्रस्तावना में लिखते हैं कि ये दोनों बातें महावीर ने "गौशाला" की आजीनिक सम्प्रदाय से ग्रहण की हैं। इस बारे में