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भगवान् महावीर
कीर्ति" नामक शिष्य पलाश नगर के पास सरयू नदी के किनारे पर तप कर रहा था। "वुद्ध काति" ने एक वार आहार लेने की इच्छा से आस पास दृष्टि डाली, इतने ही में उसे नदी किनारे एक मरा हुआ मत्स्य नजर आया। उसको देख कर उसने कुछ समय तक विचार किया और अन्त में यह निश्चय किया कि, मरी हुई मछली को खाने में कुछ भी पाप नहीं, क्योंकि इसमें जीव नहीं है, और जहां जीव नहीं वहां हिंसा नहीं। ऐसा विचार कर उसने पार्श्वनाथ का पंथ छोड़ दिया और “बुद्धधर्म" नाम का अपना एक नया ही वर्म शुरु किया। महावीरखामी के तीर्थकर होने से पूर्व ही उसने उपदेश देना प्रारम्म कर दिया था।"
इस दन्त कया की आलोचना करना हम व्यर्थ समनाते हैं। क्योंकि कोई भी निप्पन पात फिर चाहं व जैन ही क्यो न हो इस कथा पर हसे विना न रहेगा।
इसके अतिरिक्त जैनियों के और भी कई ग्रन्यो में बौद्धों की निन्दा में पृष्ट के पृष्ट रखे हुए हैं। श्रेणिकचरित्र, अफलंकचन्त्रि श्रादि ग्रन्यों के लिखने का तो शायद मूल उद्देश्य ही बोवां की निन्दा करना था।।
इसी प्रकार बौद्ध ग्रन्यों में भी जन-धन्म की भर पेट निन्दा की गई है । स्थान स्थान पर "निनन्यको यर्म-द्रोही के नाम । ने लवाधिन किया गया है "मागोमनिकाय' नामक बौद्धों का एक ग्रन्य है, उसमें लिखा है कि, बानीपुत्र ( महावीर ) ने अपने • अभय कुमारनामक एक शिव्य को बुद्धदेव के पास शाखार्थ करने के लिए भेजा पर वह ऐसा परात हुआ कि वापस अपने