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________________ २३९ भगवान् महावीर नहीं है-अपना कल्प जान कर उस समवशरण मे बैठकर उपदेश दिया। पर वहां पर उपकार के योग्य लोगो का अभाव देख प्रभु ने अन्यत्र बिहार किया। वहां से चल कर असंख्य देवताओं से सेवित महावीर प्रभु भव्यजनो का उपकार करने के निमित्त 'अपापा' नामक नगरी में पधारे। उस पुरी के समीप महासेन नामक बन मे देवताओ ने समवशरण की रचना की। उस समवशरण में पूर्व के द्वार से प्रभु ने प्रवेश किया। पश्चात् बत्तीप्त धनुप ऊंचे रत्न-प्रतिच्छन्द के समान चैत्य वृक्ष को तीन,प्रदक्षिणा दे "तीर्थायनम " ऐसा कह प्रभ ने अहंत धर्म की मर्यादा का पालन किया । तदनन्तर वे पादपीठ युक्त पूर्व सिहासन पर बैठे । उस समय देवताओ ने शेप तीन दिशाओ में भी प्रभु के प्रति रूप स्थापित किये जिससे चारो दिशा वाले आनन्दपूर्वक प्रभु को देख सकें, और उनका उपदेश सुन सकें । इसी अवसर पर सब देवता, मनुष्य तिर्यञ्च आदि अपने अपने नियमित स्थानो पर बैठ कर प्रभु के मुख की ओर अतुम दृष्टि से निहारने लगे। तत्पश्चात् इन्द्र ने भक्ति के श्रावेश में आ भगवान की एक लम्बी स्तुति की । उनकी स्तुति समाप्त होने पर प्रभु ने सब लोग अपनी अपनी भाषा में समझ ले-ऐसी विचित्र वाणी मे कहना प्रारम्भ किया :_ "यह ससार समुद्र के समान दारुण है, और वृक्ष के बीज * तीर्थंकर का उपदेश कमी व्यर्थ नहीं जाता, ऐमी स्थिति में महावीर के पहले उपदेश का विलकुल व्यर्थ जाना अत्यन्त आश्चर्य-प्रद बात है, ऐसा जैनशास्त्रों का कथन है।
SR No.010171
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherMahavir Granth Prakashan Bhanpura
Publication Year
Total Pages435
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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