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भगवान् महावीर
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खण्ड में किया जा चुका है, वस भगवान पर आने वाले उपसों में यही सब से अधिक दुखद और अन्तिम उपसर्ग था । इसके पश्चात भगवान् पर कोई उपसर्ग न आया। कैवल्य प्राप्ति और चतुर्विध संघ की स्थापना
जम्बुक नामक ग्रामों में ऋजु वालिका नदी के तौर पर "शामाक" नामक एक गृहस्थ का क्षेत्र था । वहां पर एक गुप्त चैत्य था, उसके समीप एक शालि वृक्ष के नीचे उत्कृष्टासन लगा कर शुक्लध्यानावस्थावस्थित हो प्रभु आतापना करने लगे । बैसाख सुदी दसमी का सुंदर दिन था। चन्द्रहस्तोत्तरा नक्षत्र था, सुंदर समीर बह रहा था, संसार आनन्द मग्न था, ऐसे शुभ समय में विजय मुहुर्त के अन्तर्गत प्रभु के चार घातिया-कर्म (ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, और अन्तराय) जीर्ण रस्सी के समान टूट गये, उसी समय भगवान् को सर्वश्रेष्ठ केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई।
नियमानुसार इंद्र का आसन कम्पायमान हुआ जिससे उसने प्रभु को कैवल्य प्राप्ति का अनुमान कर लिया। इस समाचार को सुनते ही सब देवता अत्यन्त हर्षित चित्त हो वहां आये। उस अवसर पर श्रानन्द के मारे कोई कूदने लगे, कोई नाचने लगे, कोई घोड़े की तरह हिनहिनाने लगे तो कोई हाथी के समान चिंघाड़ने लगे। मतलब यह है कि हर्षोन्मत्त हो वे सब मनमानी क्रिडाएँ करने लगे। पश्चात् देवताओ ने बारह दरवाजो वाला समवशरण मंडप बनाया। भगवान महावीर ने जानते हुए भी रत्नसिंहासन पर बैठ कर उपदेश देना सर्व विरति को योग्य