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भगवान् महावीर
धान का बीज-वृक्ष-सम्बन्ध अनादि काल से चला आ रहा है। परन्तु जब धान पर से छिलका उतर जाता है तव चावल अनेक प्रयत्न करने पर भी नहीं उगता, उसी प्रकार जीव के भी अनादि सन्तान-क्रम विकृत भावों से कम-बन्धन और कर्म के उदय में विकृट भात्र होते चले आये हैं। परन्तु जब छिलका रूपी विकृत भाव जुदा हो जाते हैं तब फिर चावल रूपी शुद्ध जीव को घरोत्पत्ति रूपी कर्म बन्धन नहीं होता।
बन्धन का स्वरूप और उससे छुटकारा होने की सम्भावना मालूम कर लेने के बाद यह भी जान लेना थावश्यक है कि छुटकारा किसी परमात्मा के कर्म-फल देने या पैगम्बर के दिलाने से होता है या जीव ही अपने पुरुपार्थ से बन्धनों से मुक्त हो जाता है।
यदि परमात्मा की जरूरत कर्म-फल देने के लिए है तो यह देखना चाहिए कि विपादिक भक्षण करनेवालों को मरणादिक फल बिना किसी फल-दाता के हो मिल जाता है। अगर यह कहा जाय कि विप खाने का फल भी ईश्वर ही देता है। क्योंकि जीव कर्मों के करने में तो स्वतन्त्र है परन्तु उनके फल भागने में परनन्त्र है तो यह भी ठीक नहीं। किसी धनान्य ने ऐसा कर्म किया जिसका फल उसे उसका धनहरण होने से मिल सकता है। ईश्वर स्खय तो उसका धन चुराने के लिए आता नही, किन्तु किसी चोर के द्वारा उसका धनहरण कराता है। ऐसी अवस्था में अर्थात् जव चोर ने एक धनाढ्य का धन चुराया तब इस क्रिया से धनाढ्य को पूर्वकृत कर्म का फल मिला और चोर ने नवीन कर्म किया। अब बताइए कि चोर ने धनाड्य के