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भगवान महावीर किये हैं पर बौद्धों में केवल भिक्षुक और भिक्षुकी यही दो भेद किये हैं।
दोनों ही धमों के त्रिरान वाले मुद्रालेख खास विचार के सूचक हैं। वौद्ध लोगों का यह मुद्रालेख आधि-भौतिक अर्थ से सम्बन्ध रखता है, और जैनियों का आध्यात्मिकता से। पहले तीन रत्नों (बुद्ध, धमे और सघ )से मालूम होता है कि ये भेद व्यवहारिकता को पूर्ण रूप से सन्मुख रख कर बनाये गये हैं। इनके द्वारा लोगों के अन्तर्गत बहुत शीघ्रता से उत्साह भरा जा सकता है । और दूसरे तीन रनों ( सम्यक्दर्शन, · सम्यकज्ञान, और सम्यकचरित्र ) से मालूम होता है कि ये तीनो आदर्श और व्यवहार इन दोनों वष्टियों को समान पलड़े पर रखकर बनाये गये हैं। इनके द्वारा मनुष्यों में वाह्य ज्वलन्त साहस का उदय तो नहीं होता पर शान्त और स्थिर मनों-भावनाओं की उत्पति होती है। पहले "त्रिरत्न" से मनुष्य क्षणिक आवेश में आता है पर दूसरे "त्रिरत्न" से स्थायी आवेश का उद्गम होता है। पहले "त्रिरत्र" में समय को देख कर उत्तेजित होने वाले असंख्य लोग सम्मिलित हो जाते हैं पर दूसरे "त्रिरत्न" में स्थायी भावनाओं वाले बहुत ही कम लोग सम्मिलित होते हैं । इस अनुमान का इतिहास भी अनुमोदन करता है, अपने चपल और प्रवर्तक उत्साह की उमंग से वौद्धधर्म हिन्दुस्थान के बाहर भी प्रसारित हो गया। पर जैनधर्म केवल भारतवर्ष में ही शान्त और मन्थर गवि से चलता रहा।
"निरन" की ही तरह "संघ" शब्द के भेद भी बड़े हो महत्व पूर्ण है। बौद्ध लोगों के संघ में केवल मिक्षक और मिथुकी