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भगवान् महावीर
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डसवाया । उसके पश्चात् उसने भयङ्कर विच्छू, नेवले, सर्प, उत्पन्न कर के उनके द्वारा प्रभु को कष्ट दिया, पर जगत्बन्धु, दीर्घ तपस्वी महावीर इन भयङ्कर उपसगों से रथ मात्र भी विचलित न हुए। वे इन उपसगों की आत्मा मे रत्ती मात्र भी खेद न उपजाते हुए सहन कर रहे थे । इसी स्थान पर आकर महावीर जगत् के लोगों से आगे बढ़ते हैं । इसी स्थान पर श्राकर उनका महावीरत्व टपकता है । ऐसे विकट समय में भी जो व्यक्ति अपने धैर्य से लेरा मात्र भी विचलित न हो, इतना ही नहीं, ऐसे भीपण शत्रु के प्रति जिसके भावों में भी रश्च मात्र द्वेष उत्पन्न न हो, ऐसे उत्कट पुरुष को यदि संसार के लोग महावीर माने तो क्या आश्चर्य ।
यदि महावीर चाहते तो स्वयं अपनी शक्ति से अथवा इन्द्र के द्वारा इन उपसगों को रोक सकते थे, पर उन्होंने ऐसा करके प्रकृति के नियम मे क्रान्ति उत्पन्न करना उचित न समझा । यदि वे ऐसा करते तो उसका फल यह होता कि " सङ्गम" की अपेक्षा भी अधिक एक बलवान से प्रकृति के नियम को रोकना पड़ता, और जब तक प्रकृति मे पुनः साम्यावस्था उपस्थित न हो जाती, जब तक कर्म की सत्ता पुनः क्षीण न हो जाती, तब तक उनको कैवल्य प्राप्ति से वंचित रहना पड़ता ।
इसमें तो सन्देह नही कि विश्वासी जैन वन्धुओ को छोड़ कर आजकल का बुद्धिवादी समाज इन उपसर्गों को कभी सम्भव नहीं मान सकता । पर सङ्गम के किए हुए उन उपसर्गो में हमें मनुष्य प्रकृति का सुंदर निरीक्षण देखने को मिलता है । सङ्गम ने प्रभु को जिस भ्रम से कष्ट दिये थे, उनसे मालूम होता