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भगवान् महावीर
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-मार्ग दोनो पर श्रद्धा रखता है। जैसे जिस देश मे नारियलों के फलो का भोजन होता है उस देश के लोग अन्न पर न श्रद्धा रखते हैं और न अश्रद्धा ही। इसी तरह इस गुणस्थान वाले को भी सत्य मार्ग पर न रुचि होती है और न अरुचि ही । खल और गुड़ दोनों को समान समझनेवाली मोडमिश्रित वृति इसमें रहती है। इतना होने पर भी इस गुणस्थान मे आने के पहले जीव को सम्यक्त्व हो गया होता है । इसलिये खासादन गुणस्थान की तरह उसके भव-भ्रमण का भी काल निश्चित हो जाता है ।
अविरतसम्यकदृष्टि-विरत का अर्थ है व्रत । व्रत बिना जो सम्यक्त्व होता है उसको 'अविरत सम्यकदृष्टि' कहते हैं । यदि सम्यक्त्व का थोड़ा सा भी स्पर्श हो जाता है, तो जीव के भवभ्रमण की अवधि निश्चित हो जाती है । इसी के प्रभाव से सासादन और मिश्र गुणस्थान वाले जीवो का भव-भ्रमण काल निश्चित हो जाता है । आत्मा के एक प्रकार के शुद्ध विकास को सम्यकूदर्शन या सम्यकदृष्टि कहते हैं इस स्थिति में तत्त्व-विषयक या सशय भ्रम को स्थान नहीं मिलता है । इस सम्यक्त्व से मनुष्य मोक्ष प्राप्ति के योग्य होता है । इसके अतिरिक्त चाहे कितना ही कष्टानुष्ठान किया जाय, उससे मनुष्य को मुक्ति नहीं मिलती । मनुस्मृति में लिखा है :
“सम्यक दर्शन सम्पन्नः कर्मर्णा नहि बध्यते । दर्शनेन विहींनस्तु संसारं प्रति पद्यते " ॥
भवार्थ - सम्यकूदर्शन वाला जीव कर्मों से नहीं बंधता है, "और सम्यक दर्शन विहीन प्राणी संसार में भटकता फिरता है ।