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भगवान् महावीर
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तो गृहस्थ का धर्म है, उनके पूर्व कालीन प्रायः सभी तीर्थकरोंने [ एक दो छोड़ कर ] विवाह किये थे । इसके सिवाय उनकी परिस्थिति भी विवाह के सर्वथा अनुकूल थी । ऐसी हालत में मनोविज्ञान की दृष्टि के अनुसार भी उनका विवाह करना ही अधिक सम्भवः माना जा सकता है अव आदर्श की दृष्टि से लीजिए । यदि हम महावीर को गृहस्थ धर्म की राह मे 'विकास करते देखते हैं तो हमें प्रसन्नता होती है । हमारे हृदय के अन्दर इस भावना का संसार होने लगता है किमहावीर की ही तरह हम भी गृहस्थाश्रम के मार्ग से होते हुए ईश्वरत्व की ओर जा सकते हैं ।
आदर्श जीवन व्यतीत करनेवाले मनुष्य की साधारणतया दो अवस्थाएँ होती हैं । इन दोनों अवस्थाओ को अंग्रेजी में क्रमशः ? Self Aasertion और Self Realization कहते हैं । इन दोनों को हम प्रवृति मार्ग और निवृति मार्ग के नाम से कहे तो अनुचित न होगा ।। इन दोनो मार्गों में परस्पर कारण और कार्य का सम्बन्ध है । पहली अवस्था में मनुष्य को धर्म, अर्थ और काम को सम्पन्न करने की आवश्यकता होती है । यह प्रवृति शरीर और मन दोनों से सम्बन्ध रखती है । पैसा कमाना, विवाह करना, व्यवसाय करना, अत्याचार का सामना करना, आदि गृहस्थाश्रम में पालनीय वस्तुएँ इस अवस्था का बाह्य उपदेश रहता है । पर वास्तविक उद्देश्य उसका कुछ दूसरा ही रहता है । वास्तविक रूप से देखा जाय तो वाह्य जगत को यह सब क्रियाएँ जीवन की वास्तविक स्थिति को प्राप्त करने की पूर्व तैयारियाँ हैं । बिना