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भगवान् महावीर के साथ समाज में फैला हुआ था कि स्वयं बुद्धदेव भी छ. साल तक उसके चक्कर में पड़े रहे पर अन्त में इसकी निस्सारता मालूम होते ही उन्होने इसे छोड़ दिया।
समाज में यज्ञवादियों और हठयोगवादियों के अतिरिक्त कुछ अश ऐसा भी था, जिसे इन दोनो ही मागों से शान्ति न मिलती थी। वे लोग सच्ची धार्मिक उन्नति के उपासक थे। या उनको समाज का यह कृत्रिम जीवन बहुत कष्ट देता था। ये लोग समाज से और घर-बार से मुंह मोड़ कर सत्य की खोज के लिये जगलों मे भटकते फिरते थे।भगवान महावीर के पहले और उनके समय में ऐसे बहुत से परिव्राजक, सन्यासी और साधु एक स्थान से दूसरे स्थान पर विचरण करते थे। समाज की प्रचलित संस्थाओ से उनका कोई सम्बन्ध न था। बल्कि वे लोग तत्कालीन प्रचलित धर्म और प्रणाली का डंके की चोट विरोध करते थे। सव-साधारण के हृदयो मे वे प्रचलित धर्म के प्रति अविश्वास का बीज आरोपित करते जाते थे। इन सन्यासियों ने समाज के अन्दर बहुत सा उत्तम विचारों का क्षेत्र तैयार कर दिया था।
इसके अतिरिक्त भगवान महावीर के पूर्व उपनिपदों का भी प्रादुर्भाव हो चुका था । इन उपनिषदों मे कर्म के ऊपर ज्ञान की प्रधानता दिखलाई गई थी, उनमें ज्ञान के द्वारा अज्ञान का नाश और मोह से निवृति बतलाई गई थी। इन उपनिषदों में पुनर्जन्म का अनुमान, जीव के सुख दुख का कारण परमात्मा की सत्ता, आत्मा और परमात्मा में सम्बन्ध आदि कई गम्भीर प्रश्नों पर विचार किया है। धीरे धीरे इन उपनिषदों का अनु