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भगवान महावीर ' परन्तु जैन अहिंसा का वास्तविक रूप यह नहीं है जो आधुनिक जैन समाज में प्रचलित है। यह तो उसका बहुत ही विकृत रूप है। समाज में जब देवी सम्पद् का हास और आसुरी सम्पद् का आधिक्य होने लगता है तो प्रायः सभी उत्कृष्ट तत्वों के ऐसे ही विकृत रूप हो जाते हैं। श्रासुरी सम्पद् का आधिक्य भारतीय समाज में हो जाने के कारण ही क्या अहिंसा और क्या अन्य तत्व सभी के विकृत रूप हो गये हैं। ये रूप इतने भयङ्कर हो गये हैं कि उन्हें स्पर्श करने तक का साहस भी नहीं होता।
जैन अहिंसा के इस विकृत रूप को छोड़ कर यदि हम उसके शुद्ध और असली रूप को देखें तो ऊपर के सब आक्षेपो का निराकरण हो जाता है। इस स्थान पर हम उन चन्द आक्षेपो के निराकरण करने की चेष्टा करते हैं जो आधुनिक विद्वानो के द्वारा जैन अहिंसा पर लगाये जाते हैं । इस निराकरण से हम समझते हैं कि आक्षेपो की निवृत्ति के साथ साथ जैन अहिंसा का संक्षिप्त स्वरूप भी समझ में आ जायगा ।*
जैन अहिंसा पर सव से पहला आक्षेप यह किया जाता है कि जैनधर्म के प्रवर्तकों ने अहिसा को मर्यादा को इतनी सूक्ष्म कोटि पर पहुँचा दी है कि जहाँ पर जाकर वह करीब करीब अन्ववहाय्य हो गई है । जैन अहिंसा का जो कोई पूर्ण रूपेण पालन करना चाहे, उसको जीवन की तमाम क्रियाओं को बन्द
• यह लेख मुनि जिनविनय जी द्वारा लिखिन "जैनधर्म नु अहिंमा नन्द नामक लेख के आधार पर लिखा गया है।