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भगवान महावीर
०९० केवल कायिक रूप (शारीरिक) बन करही समाप्त हो गया है, पर जैन-धर्म का अहिंसातत्व उससे बहुत आगे वाचिक और मानसिक होकर आत्मिक रूप तक चला गया है। दूसरे धर्मों की अहिंसा की मर्यादा मनुष्य जाति तक ही अथवा बहुत आगे गई है तो पशु और पत्तियों के जगत् में जाकर समाप्त हो गई है, पर जैन अहिंसा की कोई मादा ही नहीं है। उसकी मर्यादा में तमाम चराचर जीवो का समावेश हो जाने पर भी वह अपरिमित ही रहती है । यह अहिंसा विश्व की तरह अमर्यादित और आलाश की तरह अनन्त है।
लेकिन जैन-धर्म के इस महान तत्व के यथार्य रहस्य को समजने का प्रयास बहुत ही कम लोगों ने किया है । जैनियों की इस अहिसा के विषय में जनता के अन्तर्गत बहुत प्रज्ञान
और भ्रम फैला हुआ है। बहुत से बड़े बड़े प्रतिष्ठित विद्वान् इसको अन्यवहार्य, अनाचरणोय, आत्मघातकी, एवं वाय. रता की जननी समझ कर इसको राष्ट्रनाशक बतलाते हैं । उन लोगों के दिल और दिमाग में यह बात जोरों से ठसी हुई है कि जैनियों की इस अहिंसा ने देश को कायर, और निर्वीर्य वना दिया है और इसका प्रधान कारण यह है कि प्राधुनिक जैन समाज में अहिंसा का जो अर्थ किया जाता है वह वास्तव में ही ऐसा है। जैन-धर्म की असली अहिंसा के तत्व ने आधुनिक जैन समाज में अवश्य कायरता का रूप धारण कर लिया है। इसी आधुनिक अहिंसा के रूप को देख कर यदि विद्वान् लोग भी उसको कायरता-प्रधान धर्म मानने लग जाय तो आश्चर्य नहीं।
लोगों ने रिहत्य को
। के विषय