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________________ भगवान् महावीर २९२ कर देना पड़ेगा और निश्चेष्ट होकर देह को त्यागना पड़ेगा । मतलब यह है कि जीवन व्यवहार को प्रारम्भ रखना और जैन अहिसा का पालन करना ये दोनो वातें परस्पर एक दूसरे के विरुद्ध हैं । अतः मनुष्य-प्रकृति के लिए यह कदापि सम्भव नहीं । इसमें सन्देह नही कि जैन अहिसा की मर्यादा वहुत ही विस्तृत है और उसका पालन करना सर्वसाधरण के लिए बहुत ही कठिन है और इसी कारण जैनधर्म के अतर्गत पूर्ण अहिंसा के अधिकारी केवल मुनि ही माने गये हैं, साधारण गृहस्थ नही । पर इसके लिए यह कहना कि यह सर्वथा अन्य वहाय है अथवा आत्म- घातक है, बिल्कुल भ्रममूलक है । इस बात को प्रायः सब लोग मानते तथा जानते हैं कि अहिसा - तत्व के प्रवर्तको ने अपने जीवन में इस तत्व का पूर्ण अमल किया था । अपने जीवन में पूरी तरह पालन करते हुए भी वे कितने ही वर्षों तक जीवित रहे थे। उनके उपदेश से प्रेरित हो कर लाखों आदमी उनके अनुयायी हुए थे जो कि आज तक उनके उपदेश का पालन करते चले आ रहे हैं। पर फिर भी हम देखते हैं कि किसी को इस तत्व का पालन करने के निमित्त आत्मघात करने की आवश्यकता नहीं हुई । इस पर यह बात ता. स्वयंसिद्ध हो जाती है कि जैन श्रहिंसा अव्यवहार्य नहीं है । इतना अवश्य है कि जो लोग अपने जीवन का सद्व्यय करने को तैयार नहीं हैं, जो अपने स्वार्थों का भोग देने में हिचकते हैं, उन लोगों के लिये यह तत्व अवश्य अव्यवहार्य है । क्योकि अहिसा का तत्व आत्मा के उद्धार से बहुत सम्बन्ध रखता है । आत्मा को संसार और कर्मबन्धन से स्वतन्त्र करने और दुख
SR No.010171
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherMahavir Granth Prakashan Bhanpura
Publication Year
Total Pages435
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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