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पालु
रूप
में समाप्त नहीं हो जाती, सत् और असत् आदि दूसरे विरुद्धमें दिखलाई देनेवाली वार्ते भी इस तत्त्र ज्ञान के अन्दर सम्मिलित हो जाती हैं। घड़ा आंखों से स्पष्ट दिखलाई देवा है । इससे हर कोई सहज ही कह सकता है कि "वह मन् है ।" मगर न्याय कहता है कि अनुक दृष्टि से वह "असन्" भी है यह बात बड़ी गम्भीरता के साथ मनन करने योग्य है कि प्रत्येक पदार्थ किन बातों के कारण "सन्" कहलाता है । द्रप. रस, गन्ध आकारादि अपने ही गुणों और अपने ही धर्मों से प्रत्येक पदार्थ "सत्" होता है । दूसरे के गुणों से कोई पदार्थ " सन्" नही कहला सकता। एक स्कूल का मास्टर अपने विद्यार्थी की दृष्टि से "मास्टर" कहला सकता है । एक पिता अपने पुत्र की दृष्टि से पिता कहला सकता है । पर वही मास्टर और वही पिता दूसरे की दृष्टि से मास्टर या पिता नही कहता सकता । जैसे स्वपुत्र की अपेक्षा से जो पिता होता है वही पर पुत्र की अपेक्षा से पिता नहीं होता है उसी तरह अपने गुणों से, अपने धर्मों से, अपने खरूप से जो पदार्थ सत् हैं, वही दूसरे पदार्थ के धर्मों से, गुणों से और स्वरूप से "सत्” नहीं हो सकता है । जो वस्तु "सत्" नहीं है, उसे "असत्" कहने में कोई दोष उत्पन्न नहीं हो सकता ।
● इसी विषय को कूल ज्या में श्री हरिन्द्रकिर
भगवान महावीर
कहते हैं।
“चवताः स·द्रव्यक्षेत्रकालमावरपेय सद् वने, परद्रव्य -चाइन् । ततश्च सच सच भवति । अन्यथा तदमच प्रहार (वय नवगाव) इचादि । अनेकन् या पृष्ठ ३० ।