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भगवान् महावीर
अनुक्रम से विहार करते करते प्रभु " पोतनपुर" पधारे। उस नगर के समीपवर्ती मनोरम नामक उद्यान में देवताओं ने समवशरण की रचना की। वहां का राजा प्रसन्नचन्द्र उसी समय प्रभु की वन्दना करने के निमित्त आया । प्रभु की देशना सुन इसको उमी समय ससार के प्रति वैराग्य हो आया, तत्र अपने पुत्र को राज्य का भार दे उसने दीक्षा ग्रहण कर ली । उम्र तपस्या करते हुए राजर्षि प्रसन्नचन्द्र भगवान् के साथ बिहार करने लगे कुछ समय पश्चात् भगवात् महावीर के साथ वे राजगृही नामक नगरी में आये यह सुनने हो कि भगवान् महावीर राजगृह के समीपवर्ती वन में श्राये हुए हैं। राजा श्रेणिक अत्यन्त उत्कण्ठित चिच से अपने परिवार के साथ उनकी वन्दना करने गया । उसकी सेना के आगे चलने वाले सुमुख और दुर्मुन दो सेनापति मिध्यादृष्टि थे । वे आपस में कई प्रकार की बातें करते हुए जा रहे थे, मार्ग में उनको प्रसन्नचन्द्र मुनि दिव्यलाई दिये । वे एक पैर से खडे होकर ऊंचे हाथ किये हुए श्रातापना कर रहे थे ! उनको देख कर सुमुख बोला । "ऐसी प्रतापना करने वाले मुनि के लिए वर्ग और मोक्ष कुछ भी दुर्लभ नहीं हैं ।" यह सुन कर दुर्मुख बोला " अरे यह तो पोतनपुर का गजा प्रसन्नचन्द्र है, इसने अपने छोटे से लड़के को इतना बड़ा राज्य देकर उसके प्राणों पर कैसी विपत्ति खड़ी कर दी है। उसके मंत्री श्रव चम्पानगरी के राजा दधिवाहन से मिल कर उस लड़के को राजभ्रष्ट करने की कोशिश में लगे हुए हैं। इसी प्रकार इसको पत्नियां भी कहीं चली गई हैं। यह कोई धर्म है । प्रसन्नचन्द्र के ध्यान रूपी पर्वत पर इन वचनों ने वस्त्र