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भगवान महावीर समझ गये होंगे कि उस समय भारतीय समाज की ठीक यही सिति हो रही थी, ब्राह्मणों का बलवान अग शूद्रों के निर्वल अझ के तमाम अधिकारों को छीन चुका था और पुरुपो का सबल अङ्ग स्त्रियों के निल अंग को तत्त्व हीन कर चुका था । पशुओं के प्राणों का कुछ भी मुल्य नहीं समझा जाता था। हजारों, लाखों प्राणी दिन दहाड़े यज्ञ की पवित्र वेदी पर तलवार के घाट उतार दिये जाते थे। उनके अन्तर्जगत में अशान्ति की मीपण जाला धधक रही थी। वे लोग बड़ी ही उत्कण्ठा के साथ मे पुरप की गह देख रहे थे जो उस ज्वाला का-उन मनोविकारों का स्फोट कर दे। महावीर और बुद्ध ने प्रकट हो कर यही कार्य किया नन्दाने अपने असीम साहस और उत्कट प्रतिभा के चल से लोगों के इन अंतर्भावों को वाह्य क्रान्ति का रूप दे दिया।
हमाग विश्वाम है कि यदि ये दोनों महात्मा लोगो की मनोमृतियों के अनुकूल न रहते हुए उनकी भावनाओं के प्रतिकूल कोई मान्ति उपस्थित करते तो कभी उन्हें इतनी सफलता न मिलती, पर वे तो मनोविज्ञान के पूरे पण्डित थे, समाज के इसी मर्ज को
और धर्म के असली तत्त्व की खोज में ही उन्होंने अपनी जिन्दगी के बारह वर्ष व्यतीत कर दिये थे। उनसे ऐसी बड़ी मूल कम हो सकती थी। उन्होंने बहुत ही सूक्ष्मता से लोंगो की मनोवृत्तियों का अध्ययन कर अपने अपने धर्म का मुख्य सिद्धान्त "महिसा" और "साम्यवाद" रक्खा। उन्होंने अपनी अतुलप्रतिभा के द्वारा लोगों को मनोवृत्तियों का नेतृत्व Lead करना , शुरू किया । और मालूम होता है इसी कारण तत्कालीन समाज ।
ने उन्हें तुरत ही अपना नेता खोकार कर लिया।