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भगवान महावीर
१३४ प ही अंशो तक मनुष्य जाति का हित करने में समर्थ हो सकती है। जिसके जीवन की सैकड़ो बाजुएं दोषयुक्त होती हैं वह यदि दूसरों के सुधारने का बीड़ा लेकर मैदान में उतरता है तो उससे सिवाय हानि के किसी प्रकार का लाभ सम्पन्न नहीं हो सकता।
अपने अन्तःकरण की कालिमा को दूर किये बिना ही दूसरे के अन्तःकरण को शुद्ध करने का प्रयत्न करना एक कोयले से दूसरे कोयले को उज्वल करने की चेष्टा से अधिक महत्व का नहीं हो सकता । अपनी आत्मा को पूर्ण शुद्ध किये के पश्चात् अपने ज्वलन्त उदाहरण के द्वारा दूसरो का हितसाधन करने मे जितनी सफलता मिलती है, उतनी अपूर्णावस्था में अत्यन्त उत्साह और आवेग से कार्य करने पर भी नहीं मिल सकती, पूर्णता से युक्त व्यक्ति थोड़े ही प्रयत्न के बल से हजारो मनुष्यो के हृदयों में गहरा असर पैदा कर सक्ता है, पर अपूर्ण मनुष्यो का पागलपन से भरा हुआ परहित-साधन का आवेग सेमर के फूल की तरह बाहरी रङ्ग दिखा कर अन्त मे फट जाता है और उसमे से थोड़ी सी रूई इधर उधर उड़ती नजर आती है । बाहा आडम्बर चाहे जितना चटकीला और पालिश किया हुआ हो, पर जब तक उपदेशक के अन्तःकरण से विकार और न्यूनताएं दूर न हो जाती, तब तक जनता के हृदय पर उसका स्थायी असर नही हो सकता । मनुष्य के अन्तःकरण में ज्ञान का दीपक जितने अशो में प्रकाशित है, उतने ही अशों में वह दूसरे को भी प्रकाश में ला सकता है। अपना स्वहित साधन किये के बिना ही जो लोग दूसरो का हित साधन करने की मूर्खता करते हैं, उनकी इस