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________________ १४७ भगवान् महावीर भी सर्प, व्यान, सिंह आदि योनियों में जन्म लेता है। जाति, स्मरण हो जाने के कारण सर्प को मालूम हो गया कि इसी भीपण क्रोध प्रवृति के कारण मेरी यह गति हुई है। यदि अव इस प्रवृनि को न छोडूंगा तो भविष्य मे न मालूम और कितनी अधमगनि होगी। यह सोचकर उसने उसी दिन से उस क्रोध की प्रवृति का त्याग कर दिया। उसी दिन से वह एक वैरागी की तरह शान्त और निचल रहने लगा और अन्त में उसी स्थिति में मृत्यु पाकर वह शुम जाति में उत्पन्न हुआ।। बहुत लोग किमी क्रोधी मनुष्य का क्रोव अपने क्रोध के द्वारा उतारना चाहते हैं, पर उनका यह मार्ग अत्यन्त भूल से भग हुआ है। हम देखते है कि क्रोध से क्रोध की ज्वाला दुगुनी होती है, जहर में जहर उतारने वाला वैद्यक शास्त्र का नियम इम स्थान पर कामयाब नहीं हो सकता। जिस प्रकार जलती हुई अग्नि में और अग्नि मिलाने से वह अधिक चमक उठती है, उसी प्रकार क्रोध का वटला क्रोध से देने से वह और भी अधिक बलन्त हो उठता है। जगत के अतर्गतहमनित्य प्रति जीवन-कलह के जो अनेक श्य देखा करते हैं वे इसी गलत नियम के भयंकर परिणाम हैं। क्रोध की अनमोल दवा क्षमा है। विना क्षमा की शीनल धार के पडे अग्नि शान्त नहीं हो सकती । यदि महावीरप्रभु उस साप के काटने के बदले में उसे मारने दौड़ते अथवा अपन तेजोवल से उसे भस्म कर देते तो कदापि वह स्वार्थ सिद्ध न होता, जो क्षमा के स्थिरेप्रभाव से हुआ।" लेकिन आधुनिक जगत में इस क्षमा के भी कई अर्थ होने लगे हैं अत. इस स्थान पर इस शब्द का स्पष्टीकरण कर देना
SR No.010171
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherMahavir Granth Prakashan Bhanpura
Publication Year
Total Pages435
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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