________________
भगवान् महावीर
१४६ परा ही मुग्ध दृष्टि से परमयोगीश्वर की ओर देखने लगा । वह देखता क्या है कि उस पवित्र मुखमण्डल पर इन कृत्यो के प्रति लेशमात्र भी क्रोध की छाया नहीं है। उस सुस्मित वदन पर इतनी घटना के पश्चात् भी शान्ति, क्षमा और दया के उतने ही भाव वरस रहे हैं । सर्प उस राग द्वेप हीन प्रतिमा को देख कर मुग्ध हो गया, उसने ऐसी मूर्ति आज तक नहीं देखी थी। उस दिव्यमूर्ति के प्रभाव से उसके हृदय में भी क्रोध के स्थान पर शान्ति और नमा की धारा वहने लगी। उसे इस प्रकार सुधार की ओर पलटते देखकर महावीर बोले "हे चण्ड कौशिक ? समझ ! समझ !! मोह के वश मत हो । अपने पूर्वभव को स्मरण कर
और इस भव मे की हुई भूलों को छोड़कर कल्याण के मार्ग पर प्रवृत्त हो।'
यह सुनते ही उस सर्प को जाति स्मरण हो आया ! पूर्वभव ने वह एक मुनि था। एक वार उसके पैर के नीचे एक मेंढक कुचल कर मर गया था। इस पर उसके शिष्य ने कहा था कि “गुरूजी आप मेंढक मारने का पश्चात्ताप क्या नहीं कर लेते। इस पर क्रोधित होकर उस मुनि ने कहा "मृर्ख ! मैंने कव मेढक मारा" ? यह कह कर वह क्षुल्लक को मारने के लिये दौड़ा। रास्ते मे एक खम्भे से टकरा जाने के कारण उसकी मृत्यु हो गई
और तीव्र, क्रोध प्रवृत्ति के उदय के कारण वह इस भव में उपरोक्त सर्प हुआ । यह नियम है कि जो जिस प्रवृत्ति की अधिकता के साथ मृत्यु पाता है-वह उसी प्रवृति वाले जीवों में जन्म लेता है। कोई महाकामी यदि मरेगा तो निश्चय है वह कबूतर, चिड़िया कुत्ता आदि नीच कोटि में जन्म लेगा, इसी प्रकार क्रोधी मनुष्य