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________________ ३१८ भगवान महावीर पत जो कुछ हो यह तो निश्चय है कि स्याद्वाद-दर्शन संसार के तत्वज्ञान में अपना एक खास स्थान रखता है। स्याद्वाद का अर्थ है-वस्तु का भिन्न भिन्न दृष्टि-विन्दुओ से विचार करना, देखना या कहना । स्याद्वाद का एक ही शब्द मे हम अर्थ करना चाहे तो उसे "अपेक्षावाद" कह सकते हैं। एक ही वस्तु में अमुक अमुक अपेक्षा से भिन्न भिन्न धर्मों को स्वीकार करने ही का नाम स्याद्वाद है। जैसे एक ही पुरुष भिन्न भिन्न लोगों की अपेक्षा से पिता, पुत्र, चाचा, भतीजा, पति, मामा, भानेज अदि माना जाता है। उसी प्रकार एक ही वस्तु मे भिन्न भिन्न अपेक्षा से भिन्न भिन्न धर्म माने जाते हैं। एक ही घट में नित्यव और अनित्यत्व आदि विरुद्ध रूप में दिखाई देनेवाले धर्मों को अपेक्षा-दृष्टि से स्वीकार करने ही का नाम "स्याद्वाददर्शन" है। वस्तु का स्वरूप ही कुछ ऐसे ढग का है कि वह एक ही समयमे एक ही शब्द के द्वारा पूर्णतया नहीं कहा जा सकता। एक ही पुरुष अपने पुत्र की अपेक्षा से पिता, अपने भतीजे की अपेक्षा से चचा, और अपने चचा को अपेक्षा से -भतीजा होता है। इस प्रकार परस्पर दिखाई देनेवाली बातें भी भिन्न २ अपेक्षाओं से एक ही मनुष्य में स्थित रहती हैं। यही हालत प्रायः सभी वस्तुओ की है। भिन्न भिन्न अपेक्षाओं से सभी वस्तुओ में सत् , असत् नित्य और अनित्य आदि गुण पाये जाते हैं। मान लीजिए एक,घड़ा है, हम देखते हैं कि जिस मिट्टी से घड़ा बनता है उसी से और भी कई प्रकार के बर्तन बनते हैं।
SR No.010171
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherMahavir Granth Prakashan Bhanpura
Publication Year
Total Pages435
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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