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भगवान महावीर
२२६ उसने ऐसा ही कहा तो लोग उसे मारने को तैयार हो गये। पर वृद्धों ने यह समझा कर लोगों को शान्त किया कि यह तो पागल है । इसकी बात पर क्रोध न करना चाहिए। __ इस प्रकार स्थान स्थान पर अपनी बेवकूफी से सजा पाता हुआ "गौशाला" प्रभु के साथ विचरण करने लगा। अन्त में मार खाते खाते जब वह घबरा गया तब एक ऐसे स्थान पर जहां से दो रास्ते अलग होते थे। प्रभु से कहने लगा-भगवन ! अब मैं आपके सार्थ नहीं चल सकता क्योंकि मुझे कोई गालियां देता है, कोई मारता है और कोई अपमान करता है। श्राप किसी से कुछ भी नहीं कहते हैं । आपको जव उपसर्ग होते है तब मुझे भी उपसर्ग उठाना पड़ता है। लोग पहले मुझे मारते हैं। और पीछे आपको मारते हैं। ताड़वृक्ष की सेवा के समान आपकी निष्फल सेवा करने से क्या लाभ । इसलिये अब मैं जाता हूँ । ऐसा कह कर जिस रास्ते महावीर जा रहे थे उससे दूसरे रास्ते पर वह चला गया।
आगे जाकर वह ऐसे जंगल में जा पड़ा जहां पर पांचसौ चोरो का अड्डा था। चोरों ने इसे देखते ही मारना शुरु किया । पश्चात् एक चोर इसके कंधे पर चढ़ कर इसे चावुक से मार कर चिलाने लगा । जब इसका श्वास मात्र बाकी रह गया तब वे,इसे छोड़ कर चले गये, उस समय इसे बडा पश्चात्ताप हुआ। हाय । यदि प्रभु का साथ न छोड़ता तो मेरी यह दुर्गति न होती।
इधर भगवान् भ्रमण करते करते माघमास में "शालिशो" नामक प्राम में आये । वहां के एक उद्यान में वे ध्यानन्ध हो गये । इसी बारा मे एक व्यंत्तरी रहती थी, यह भगवान् के